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ही समझा जा सकता है, व्यावहारिक प्रयोगो द्वारा नहीं। पदार्थ की आयु की दीर्घता का अल्पता मे, अल्पता का दीर्घता में परिणत हो जाना परत्वअपरत्व है । दूसरे शब्दो मे पदार्थ की अपनी ही आयु का विस्तार और सकुचन परत्व-अपरत्व है।
विश्व मे चोटी के वैज्ञानिक, आइन्स्टीन व लोरन्टन ने समीकरणो से सिद्ध किया है कि गति तारतम्य से पदार्थ की आयु मे सकोच-विस्तार होता है।
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उदाहरण के लिये एक नक्षत्र को लें जो पृथ्वी से ४० प्रकाश वर्ष दूर है अर्थात् पृथ्वी से वहाँ तक प्रकाश जाने मे ४० वर्ष लगते हैं। यहाँ से वहाँ तक पहुँचने के लिये यदि एक राकेट २४,०००० किलोमीटर प्रति सैकिण्ड की गति से चले तो साधारण गणित की दृष्टि से उसे ५० वर्ष लगेंगे। कारण कि प्रकाश की गति प्रति सैकिण्ड ३०,०००० किलोमीटर ३०.००००/४०..
"=५० वर्ष लगे । परन्तु फिटजगेराल्ड के सकुचन के नियमो के अनुसार काल मे सकुचन हो जायेगा और यह सकोच १०६ के अनुपात मे होगा अर्थात् ६०४५०/१०-३० वर्ष लगेंगे। इससे यह फलित होता है कि काल पदार्थ के परिणमन व क्रिया को प्रभावित करता हुआ उसकी आयु पर भी प्रभाव डालता है। पदार्थ की प्रायू की दीर्घता-अल्पता, पौर्वापों मे काल भाग लेता है। इस प्रकार जैन दर्शन मे प्रतिपादित काल के परत्व-अपरत्व लक्षण को आधुनिक विज्ञान गणित के समीकरणो से स्वीकार करता है । तात्पर्य यह है कि जैन दर्शन में वर्णित काल के वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व एव अपरत्व लक्षणो को वर्तमान विज्ञान सत्य प्रमाणित करता है।
काल के स्वरूप के विपय मे श्वेताम्वर और दिगम्बर आचार्यो मे कुछ मान्यता भेद भी है। श्वेताम्वर परम्परा के अनुसार काल औपचारिक द्रव्य है तथा जीव और अजीव की पर्याय है यथा.-किमय भते । कालोति पन्धुच्चई ? गोयमा ! जीवा चेव अजीवा चेव । तथा अन्यत्र ६ द्रव्यो को गिनाते समय 'अद्धासमय' रूप मे काल द्रव्य को स्वतत्र द्रव्य माना है। दिगम्वर परम्परा मे काल को स्पष्ट, वास्तविक व मूल द्रव्य माना है। यथा
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