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ध्यान देने की बात यह है कि जैन दर्शन मे प्रत्येक द्रव्य को स्वतन्त्र माना गया है अत परिणमन मे काल को प्रेरक कारण न मानकर सहकारी निमित्त उदासीन कारण माना गया है । जिस प्रकार द्रव्यो की गति व स्थिति रूप क्रिया मे धर्मास्तिकाय एव अधर्मास्तिकाय उपादान व प्रेरक निमित्त कारण न होकर उदासीन व सहकारी निमित्त कारण है व द्रव्य अपनी ही योग्यता से गति व स्थिति रूप क्रिया करते हैं, उसी प्रकार पदार्थों के परिणमन मे काल, उदासीन सहकारी निमित्त कारण है । इसके निमित्त से पदार्थ मे प्रति क्षण नव निर्माण व विध्वंस सतत होता रहता है। निर्माण व विध्वस की यही क्रिया घटनाओ को जन्म देती है। इस प्रकार काल ही पदार्थों के समस्त परिणमनो, क्रियाओ व घटनाओ का सहकारी कारण है। दूसरे शब्दो मे काल पदार्थों के परिणमन, क्रियाशीलता व घटनाओ के निर्माण मे भाग लेता है।
आधुनिक विज्ञान भी जैन दर्शन मे कथित उपर्युक्त तथ्य को स्वीकार करता है यथा-आइन्स्टीन ने देश और काल से उनकी तटस्थता छीन ली है और यह सिद्ध कर दिखाया है कि ये भी घटनायो मे भाग लेते है तथा प्रसिद्ध वैज्ञानिक जिन्स का कथन है कि "हमारे दृश्य जगत की सारी क्रियाएँ मात्र फोटोन और द्रव्य अथवा भूत की क्रियाएँ हैं तथा इन क्रियाओ का एक मात्र मच देश और काल है। इसी देश और काल ने दीवार बन कर हमे घेर रखा है।" अतः यह फलित होता है कि जैन दर्शन में वर्णित यह तथ्य कि परिणमन और क्रिया काल के उपकार हैं,. विज्ञान जगत मे मान्य हो गया है ।
___ काल के परत्व-अपरत्व लक्षण को कुछ आचार्यों ने व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति, क्षेत्र आदि के दो माध्यम स्थापित कर ' उनके सापेक्ष मे समझाने का प्रयास किया है परन्तु विचारणीय यह है कि जब काल के वर्तना, परिणाम और क्रिया लक्षण स्वय उसी पदार्थ मे प्रकट होते हैं तो परत्व-अपरत्व लक्षण भी उसी पदार्थ मे प्रकट होने चाहिये। इनके लिये भी एक सापेक्ष्य की आवश्यकता नही होनी चाहिये । इस विषय पर विस्तारपूर्वक लिखना प्रस्तुत लेख का विषय नही है। लगता ऐसा है कि उस समय के व्याख्याकार आचार्यों के समक्ष कोई ऐसा उदाहरण या विधि विद्यमान नही थी, जिससे वे काल के परिणाम-क्रिया आदि अन्य लक्षणो के समान परत्व-अपरत्व को भी स्वय पदार्थ मे ही प्रमाणित कर सकते। विज्ञान जगत् मे भी इसे आज भी केवल गणित के जटिल समीकरणो से