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ओर से अनन्त अलोक से घिरा हुआ है । अलोक का आकार बताते हुए कहा गया है कि वह खाली गोले मे रही हुई पोलाई के समान है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अस्तित्व लोकाकाश मे ही माना गया है । अलोकाकाश मे इनकी स्थिति नही मानी गयी है। इस दृष्टि से इन दोनो द्रव्यो के माध्यम से ही लोकाकाश और अलोकाकाश की विभाजन-रेखा स्पष्ट होती है। आत्मा मुक्त होने के पश्चात् ऊर्ध्वगमन करती है और धर्मास्तिकाय की सहायता से समय मात्र मे लोकाकाश की सीमा के अग्रभाग पर पहुँच कर सिद्ध शिला पर विराजमान हो जाती है और पुन लौटकर ससार-चक्र मे नही पाती।
काल द्रव्य जैन दर्शन मे काल के सम्बन्ध मे दो दृष्टियो से विचार किया गया है-नैश्चयिक काल और व्यावहारिक काल । नैश्चयिक काल का स्वरूप जैन दर्शन की मौलिक विशेषता है। इसकी विवेचना कर्म सिद्धान्त के सन्दर्भ से की गयी है। काल का मुख्य लक्षण वर्तना मानते हुए कहा गया है-'वतणा लक्खरणो कालो।" 'तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है
वर्तना परिणाम क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य ।।
अर्थात् वर्तना, परिणाम, क्रिया परत्व और अपरत्व काल द्रव्य के उपकार हैं। वर्तना शब्द युच प्रत्यय पूर्वक 'वृतु' धातु से बना है। जिसका अर्थ है जो वर्तनशील हो । उत्पत्ति, अपच्युति और विद्यमानता रूप वृत्ति अर्थात् क्रिया वर्तना कहलाती है। वर्तना रूप कार्य की उत्पत्ति जिस द्रव्य का उपकार है, वही काल है।
__परिणाम, परिणमन का ही रूप है । परिणमन और क्रिया सहभावी है । क्रिया मे गति आदि का समावेश होता है। गति का अर्थ है आकाशप्रदेशो मे क्रमश स्थान परिवर्तन करना। किसी भी पदार्थ की गति मे स्थान परिवर्तन का विचार उसमे लगने वाले काल के साथ किया जाता है। परत्व और अपरत्व अर्थात् पहले होना और बाद में होना अथवा पुराना और नया ये विचार भी काल के विना नही समझाये जा सकते। १-उत्तराध्ययन सूत्र २८/१० २-तत्त्वार्थ सूत्र ५/२२
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