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द्रव्य का दूसरा धर्म क्रमभावी धर्म है जिसे पर्याय कहते हैं । यह परिवर्तनशील होता है।
६ द्रव्यो मे से जीवास्तिकाय को छोडकर शेष ५ द्रव्य अजीव हैं और पुद्गल को छोडकर शेष द्रव्य अरूपी हैं । यहाँ आकाश और काल द्रव्य के सम्बन्ध मे कुछ विचार प्रकट किये जा रहे हैं।
जैन दर्शन के अनुसार आकाश स्वतन्त्र द्रव्य है। दिक् उसी का विभाग है । आकाश की परिभाषा करते हुए कहा गया है-वह द्रव्य जो अन्य सब द्रव्यो को अवगाह, आकाश स्थान अर्थात् आश्रय देता है। वह आकाश है-'अवगाह लक्खरणेण आगासात्थिकाए' इन्द्रभूति गौतम भगवान् महावीर से प्रश्न करते हैं-भगवन् । आकाश तत्त्व से जीवो और अजीवो को क्या लाभ होता है ? महावीर उत्तर देते है-हे गौतम । आकाशास्तिकाय जीव और अजीव द्रव्यो के लिए भाजनभूत है अर्थात् आकाश नही होता तो ये जीव कहाँ होते ? धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय कहाँ व्याप्त होते ? काल कहाँ बरतता? पुद्गल का रगमच कहाँ बनता ? यह विश्व निराधार ही होता।
जैन दर्शन के अनुसार आकाश वास्तविक द्रव्य है अत द्रव्य मे बताये गये ६ सामान्य गुण उसमे निहित है। द्रव्य की दृष्टि से आकाश एक और अखण्ड द्रव्य है अर्थात् उसकी रचना मे सातत्य है। क्षेत्र की दृष्टि से आकाश अनन्त और असीम माना गया है । यह सर्वव्यापी है और इसके प्रदेशो की सख्या अनन्त है । काल की दृष्टि से आकाश अनादिअनन्त अर्थात् शाश्वत है । स्वरूप की दृष्टि से आकाश अमूर्त है-वर्ण, गध, रस, स्पर्श आदि गुणो से रहित है । गति रहित होने से अगतिशील है।
___आकाश के दो भाग किये गये है। (१) लोकाकाश और (२) अलोकाकाश । आकाश का वह भाग जो धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय, इन पाँच द्रव्यो को आश्रय देता है वह लोकाकाश है । शेष भाग जहाँ आकाश के अलावा अन्य कोई द्रव्य नही है, वह अलोकाकाश है । लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या असख्यात्मक है परन्तु अलोकाकाश के प्रदेशों की सख्या अनन्त है । लोकाकाश सान्त व ससीम है जबकि अलोकाकाश अनन्त व असीम है। ससीम लोक चारो १-भगवती सूत्र १३-४-४८१
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