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नही मिल सकती । मुक्ति-प्राप्ति के लिए स्वय के आत्म को ही पुरुषार्थ मे लगाना होगा। इस प्रकार जीव मात्र की गरिमा, महत्ता और इच्छा शक्ति को जैन दर्शन में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । इसीलिए यहा मुक्त जीव अर्थात परमात्मा को गुणात्मक एकता के साथ-साथ मात्रात्मक अनेकता है । क्योकि प्रत्येक जीव ईश्वर के सान्निध्य सामीप्य-लाभ ही प्राप्त करने का अधिकारी नहीं है बल्कि स्वय परमात्मा बनने के लिए क्षमतावान है । फलत जैन दृष्टि मे आत्मा ही परमात्म दशा प्राप्त करती है, पर कोई परमात्मा आत्मदशा प्राप्त कर पुन अवतरित नही होता । इस प्रकार व्यक्ति के अस्तित्व के धरातल पर जीव को ईश्वराधीनता और कर्माधीनता दोनो से मुक्ति दिलाकर उसकी पूर्ण स्वतन्त्रता की रक्षा की गयी है।
जैन दर्शन की स्वतन्त्रता निरकुश या एकाधिकारवादिता की उपज नही है। इसमे दूसरो के अस्तित्व की स्वतन्त्रता की भी पूर्ण रक्षा। है। इसी बिन्दु से अहिंसा का सिद्धान्त उभरता है जिसमे जन के प्रति ही नही प्राणी मात्र के प्रति मित्रता और वन्धुत्व का भाव है। यहा जन अर्थात मनुष्य ही प्राणी नही है और मात्र उसकी हत्या ही हिंसा नही है । जैन शास्त्रो मे प्रारण अर्थात् जीवनी शक्ति के दश भेद बताए गए हैं-सुनने की शक्ति, देखने की शक्ति, सू घने को शक्ति, स्वाद लेने की शक्ति, छ ने की शक्ति, विचारने की शक्ति, बोलने की शक्ति, गमनागमन की शक्ति, श्वास लेने व छोडने की शक्ति और जीवित रहने की शक्ति । इनमे से प्रमत्त योग द्वारा किसी प्राण को क्षति पहुचाना, उस पर प्रतिवन्ध लगाना, उसकी स्वतन्त्रता मे बाधा पहु चाना, हिंसा है । जब हम किसी के स्वतन्त्र चिन्तन को बाधित करते हैं, उसके बोलने पर प्रतिबन्ध लगाते है और गमनागमन पर रोक लगाते हैं तो प्रकारान्तर से क्रमश उसके मन, वचन और काया रूप प्राण की हिंसा करते है । इसी प्रकार किसी के देखने, सुनने, सू घने, चखने, छ ने आदि पर प्रतिबन्ध लगाना भी विभिन्न प्राणो की हिंसा है । यह कहने की आवश्यकता नही कि स्वतन्त्रता का यह सूक्ष्म उदात्त चिन्तन हमारे सविधान के स्वतन्त्रता सम्बन्धी मौलिक अधिकारो का उत्स रहा है।
विचार-जगत मे स्वतन्त्रता का बड़ा महत्त्व हैं । आत्मनिर्णय और मताधिकार इसी के परिणाम हैं । कई साम्यवादी देशो मे