SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता होते हुए भी इच्छा स्वातन्त्र्य का यह अधिकार नही है। पर जैन दर्शन मे और हमारे संविधान मे भी विचार स्वातन्त्र को सर्वोपरि महत्त्व दिया गया है । महावीर ने स्पष्ट कहा कि प्रत्येक जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व है, इसलिए उसकी स्वतत्र विचारचेतना भी है । अतः जैसा तुम सोचते हो एकमात्र वही सत्य नही है। दूसरे जो सोचते हैं उसमे भी सत्याश निहित है । अतः पूर्ण सत्य का साक्षात्कार करने के लिए इतर लोगो के सोचे हुए, अनुभव किये हुए सत्याशो को भी महत्त्व दो । उन्हे समझो, परखो और उसके पालोक मे अपने सत्य का परीक्षण करो। इससे न केवल तुम्हे उस सत्य का साक्षात्कार होगा वरन् अपनी भूलो के प्रति सुधार करने का तुम्हे अवसर भी मिलेगा । प्रकारान्तर से महावीर का चिन्तन जनतात्रिक शासन-व्यवस्था में स्वस्थ विरोधी पक्ष की आवश्यकता और महत्ता प्रतिपादित करता है तथा इस बात की प्रेरणा देता है कि किसी भी तथ्य को भली प्रकार समझने के लिए अपने को विरोध पक्ष की स्थिति में रख कर उस पर चिन्तन करो। तब जो सत्य निखरेगा वह निर्मल, निर्विकार और निष्पक्ष होगा। महावीर का यह वैचारिक औदार्य और सापेक्ष चिन्तन स्वतत्रता का रक्षा कवच है । यह दृष्टिकोण अनेकान्त सिद्धान्त के रूप मे प्रतिपादित है । २ समानता :-स्वतन्त्रता की अनुभूति वातावरण और अवसर को समानता पर निर्भर है । यदि समाज मे जातिगत वैषम्य और आर्थिक असमानता है तो स्वतन्त्रता के प्रदत्त अधिकारो का भी कोई विशेष उपयोग नही । इसलिए महावीर ने स्वतन्त्रता पर जितना वल दिया उतना ही वल समानता पर दिया । उन्हे जो विरक्ति हुई वह केवल जीवन की नश्वरता या सासारिक असारता को देखकर नही हुई वरन् मनुष्य द्वारा मनुप्य का शोषण देख कर वे तिलमिला उठे । और उस शोषण को मिटाने के लिए, जीवन के हर स्तर पर समता स्थापित करने के लिए उन्होने काति की, तीर्थप्रवर्तन किया । भक्त और भगवान के बीच पनपे धर्म दलालो को अनावश्यक बताकर भक्त और भगवान के बीच गुरणात्मक सम्बन्ध जोहा । जन्म के स्थान पर कर्म को प्रतिष्ठित कर गरीबो, दलितो और असहायो को उच्च आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त करने की कला सिखायी। अपने साधना काल मे कठोर अभिग्रह धारण कर दासी बनी, हथकडी और वेड़ियो मे जकडी, तीन दिन से भूखी,
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy