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३. पश्चिमी देशो ने पूंजीवादी और साम्यवादी दोनो प्रकार के जनतत्रो
को स्थापित करने मे रक्तपात, हत्याकाण्ड और हिंसक क्रान्ति का सहारा लिया है पर भारतीय जनतन्त्र का विकास लोकशक्ति और सामूहिक चेतना का फल है । अहिंसक प्रतिरोध और सत्याग्रह उसके मूल आधार रहे हैं।
सक्षेप में कहा जा सकता है कि भारतीय समाज-व्यवस्था मे जनतन्त्र केवल राजनैतिक सन्दर्भ ही नहीं है। यह एक व्यापक जीवन पद्धति है, एक मानसिक दृष्टिकोण है जिसका सम्बन्ध जीवन के धार्मिक, नैतिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक सभी पक्षो से है। इस घरातल पर जब हम चिन्तन करते हैं तो मुख्यत जैन दर्शन में और अधिकाशत. अन्य भारतीय दर्शनो मे भी जनतात्रिक सामाजिक चेतना के निम्नलिखित मुख्य तत्त्व रेखाकित किये जा सकते हैं :
१. स्वतन्त्रता । २ समानता । ३ लोककल्याण ४ धर्म निरपेक्षता
१. स्वतन्त्रता:-स्वतन्त्रता जनतन्त्र की आत्मा है और जैन दर्शन की मल भीति भी। जैन मान्यता के अनुसार जीव अथवा आत्मा स्वतन्त्र अस्तित्व वाला द्रव्य है । अपने अस्तित्व के लिए न तो यह किसी दूसरे द्रव्य पर आश्रित है और न इस पर आश्रित कोई अन्य द्रव्य है । इस दृष्टि से जीव को प्रभु कहा गया है जिसका अभिप्राय है 'जीव स्वयं ही अपने उत्थान या पतन का उत्तरदायी है। सद् प्रवृत्त आत्मा ही उसका मित्र है और दुष्प्रवृत्त आत्मा ही उसका शत्रु है । स्वाधीनता और पराधीनता उसके कर्मो के अधीन है। वह अपनी साधना के द्वारा घाती-अघाती सभी प्रकार के कर्मो को नष्ट कर पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर सकता है। स्वयं परमात्मा बन सकता है। जैन दर्शन मे यही जीव का लक्ष्य माना गया है । यहा स्वतन्त्रता के स्थान पर मुक्ति शब्द का प्रयोग हुआ है। इस मुक्ति प्राप्ति में जीव की साधना और उसका पुरुषार्थ हो मुख्य साधन है । गुरु आदि से मार्गदर्शन तो मिल सकता है पर उनको पूजने-आराधने से क्ति