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कर्म और पुरुषार्थ से स्वतत्र है। उन्होने कहा-यह आत्मा न तो किसी परमात्म शक्ति की कृपा पर निर्भर है और न उससे भिन्न है। जब वह यह महसूस करती है कि मेरा सुख-दुख किसी के अधीन है किसी की कपा और क्रोध पर वह अवलम्वित है, तव चाहे वह किसी भी गणराज्य मे, किसी भी स्वाधीन शासन प्रणाली मे थिचरण करे, . वह परतत्र है।
यह परतत्रता प्रात्मा से परे किसी अन्य को अपने भाग्य का नियता मान लेने पर बनी रहती है । अत महावीर ने कहा-ईश्वर आत्मा से परे कोई अलग शक्ति नही है। आत्मा जब जागरूक होकर अपने कर्मफल को सर्वथा नष्ट कर देती है, अपने में निहित अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र और अनन्त बल का साक्षात्कार कर लेती है, तब वह स्वय परमात्मा बन जाती है। परमात्म दशा प्राप्त कर लेने पर भी बह किसी परम शक्ति मे मिल नही जाती वरन् अपना स्वतत्र अस्तित्व अलग बनाये रखती है । इस प्रकार अस्तित्व की दष्टि से जैन दर्शन मे एक परमात्मा के स्थान पर अनेक व अनन्त परमात्मा की मान्यता है पर गुण की दृष्टि से सभी परमात्मा अनन्त चतुष्टय की समान शक्ति से सम्पन्न हैं । उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति में व्यक्ति स्वातन्त्र्य और समूहगत गुणात्मकी का यह सामंजस्य जैन दर्शन की एक विशिष्ट और मौलिक देन है।
परमात्मा बनने की इस प्रक्रिया में उसकी अपनी साधना और उसका पुरुषार्थ ही मूलतः काम आता है। इस प्रकार ईश्वर निर्भरता से मुक्त कर जैन दर्शन ने लोगो को आत्म-निर्भरता की शिक्षा और प्रेरणा दी है।
__ कुछ लोगो का कहना है कि जैन दर्शन द्वारा प्रस्थापित आत्मनिर्भरता का सिद्धान्त स्वतत्रता का पूरी तरह से अनुभव नही कराता, क्योकि वह एक प्रकार से आत्मा को कर्माधीन बना देता है । पर जैन दर्शन की यह कर्माधीनता भाग्य द्वारा नियन्त्रित न होकर पुरुषार्थ द्वारा सचालित है । महावीर स्पष्ट कहते हैं-हे आत्मन! तू स्वय ही अपना निग्रह कर । ऐसा करने से तू दुखो से मुक्त हो जायगा।' यह सही है १ पुरिसा । अत्ताणमेव अभिनिगिज्झ, एव दुक्खा पमोक्खसि
आचाराग ३/३/११९