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जीव या आत्मा का लक्षण उपयोग अर्थात चेतना माना गया है। ससारी जीव अपने-अपने कर्मानुमार सुख-दुख का अनुभव करता है। जैन दर्शन के अनुसार ससारी जीव जव राग-द्वेष युक्त मन, वचन, काया को प्रवृत्ति करता है तव आत्मा मे एक स्पन्दन होता है उससे वह सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओ को ग्रहण करता है और उनके द्वारा नाना प्रकार के आभ्यतर सम्कारो को उत्पन्न करता है । आत्मा मे चुम्बक की तरह अन्य पुद्गल परमाणुओ को अपनी ओर आकर्षित करने की तथा उन परमाणुओ मे लोहे की तरह आकर्षित होने की शक्ति है । यद्यपि ये पुद्गल परमाणु भौतिक हैं, अजीव हैं तथापि जीव को राग द्वेषात्मक मानसिक, वाचिक एव शारीरिक क्रिया के द्वारा आकृष्ट होकर वे आत्मा के साथ ऐसे घुलमिल जाते हैं जैसे दूध और पानी । अग्नि और लौहपिण्ड की भाति वे परस्पर एकमेक हो जाते हैं । जोव के द्वारा कृत (किया) होने से ये कर्म कहे जाते हैं।
जैन कर्मशास्त्र मे कर्म की आठ मूल प्रकृतियाँ मानी गई हैं । ये प्रकृतिया प्राणो को भिन्न-भिन्न प्रकार के अनुकूल एव प्रतिकूल फल प्रदान करती है। इन पाठ प्रकृतियो के नाम हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनमे मे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घाती प्रकतिया हैं क्योकि इनसे आत्मा के चार मूल गुणो नान, दर्शन, सुख और वीर्य (वल) का घात होता है । इन घाती कर्मों को नष्ट किए विना आत्मा सर्वज्ञ केवलज्ञानी नही बन सकती । शेष चार प्रकृनिया अघाती हैं क्योकि ये आत्मा के किसी गुण का घात नही करती। उनका प्रभाव केवल शरीर, इन्द्रिय, आयु आदि पर पड़ता है । इन सभी कर्मों से मुक्त होना ही वास्तविक व पूर्ण स्वतत्रता है।
आज हम स्वतत्रता का जो अर्थ लेते हैं वह सामान्यतः राजनैतिक स्वाधीनता से है । यदि व्यक्ति को अपनी शासन-प्रणाली और शासनाधिकारी के चयन का अधिकार है तो वह स्वतत्र माना जाता है, पर जैन दर्शन मे स्वतत्रता का यह स्थूल अर्थ ही नही लिया गया, उसकी स्वतत्रता का अर्थ वहुत सूक्ष्म और गहरा है । समस्त विषय-विकारो से, राग-द्वेष मे, कर्म-बन्धन से मुक्त होना ही उसकी दृष्टि मे वास्तविक स्वतत्रता है । भगवान् महावीर ने अन्तर्मुखी होकर लगभग साढे बारह वर्ष की कठोर साधना कर, यह चिन्तन दिया कि व्यक्ति अपने