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आध्यात्मिक दृष्टिकोण से जीव तीन प्रकार के माने गये है। बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । बहिरात्मा शरीर को ही प्रात्मा समझता है और शरीर के नष्ट होने पर अपने को नष्ट हुआ समझता है । वह ऐन्द्रिय सुख को ही सुख मानता है । अन्तरात्मा अपनी आत्मा को अपने शरीर से भिन्न समझता है। उसकी सासारिक पदार्थों मे रुचि नही होती । परमात्मा वह है जिसने समस्त कर्म बन्धनो को नष्ट कर जन्म-मरण के चक्र से सदा के लिए छुटकारा पा लिया है।
सुविधा की दृष्टि से बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा से सम्बद्ध स्वातन्त्र्य भाव को हम तीन प्रकार से समझ सकते है
(१) बहिरात्मा की स्वतन्त्रता एक प्रकार से इच्छा पूर्ति करने की क्षमता धारण करने वाली स्वतन्त्रता है क्योकि यह क्षमता सभी जीवो मे न्यूनाधिक मात्रा में निहित होती है । भौतिक आकाक्षाओ की प्रति सभी जीव करते ही है। यह स्वतन्त्रता राजनैतिक शासन प्रणाली, सामाजिक संगठन और परिस्थितियो के आश्रित होती है । स्वतन्त्रता का यह बोध बहुत ही स्थूल है और देशकालगत नियमो और भावनाओ से बधा रहता है।
(२) अन्तरात्मा की स्वतत्रता एक प्रकार से आत्मपूर्णता की क्षमता धारण करने की स्वतत्रता है । इसे हम आत्मसाक्षात्कार करने की स्वतंत्रता अथवा आदर्श जीवन जीने की स्वतत्रता भी कह सकते है। ग्रह स्वतत्रता अजित स्वतत्रता है जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के सम्यक् परिपालन से सम्पादित की जा सकती है । सम्यक् दृष्टिसम्पन्न सद्गृहस्थ अर्थात् व्रती श्रावक, मुनि आदि इस प्रकार की स्वातत्र्य भावना के भावक होते है।
(३) परमात्मा की स्वतत्रता जन्म-मरण के चक्र से सदा के लिए मुक्त होकर अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त बल के प्रकटीकरण की स्वतत्रता है। यह स्वतत्रता जीवन का सर्वोच्च मूल्य है जिसे पाकर और कुछ पाना शेष नही रह जाता । तीर्थकर, अहेत केवली, सिद्ध आदि परमात्मा इस श्रेणी में आते है।
जैन दर्शन मे परमात्मा की स्वतत्रता ही वास्तविक और पूर्ण स्वतत्रता मानी गई है।