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ईश्वर को सृष्टिकर्ता और सृष्टि नियामक के रूप मे स्वीकार नही किया गया है । इस दृष्टि से जैन दर्शन का स्वातन्त्र्य-बोध आधुनिक चिन्तना के अधिक निकट है।
जैन मान्यता के अनुसार जगत् मे जड और चेतन दो पदार्थ हैं। सष्टि का विकास इन्ही पर आधारित है । जड और चेतन मे अनेक कारणो से विविध प्रकार के रूपान्तर होते रहते हैं । इसे पर्याय कहा गया है । पर्याय की दृष्टि से वस्तुप्रो का उत्पाद और विनाश अवश्य होता है परन्तु इसके लिये देव, ब्रह्म, ईश्वर आदि की कोई आवश्यकता नहीं होती, अतएव जगत् का न तो कभी सर्जन ही होता है न प्रलय ही। वह अनादि, अनन्त और शाश्वत है । प्राणिशास्त्र के विशेषज्ञ श्री जे बी एस हाल्डेन का मत है कि "मेरे विचार मे जगत् को कोई आदि नही है।" मष्टि विषयक यह सिद्धान्त अकाट्य है और विज्ञान का चरम विकास भी कभी इसका विरोध नही कर सकता । पर स्मरणीय है कि गुण कभी नष्ट नहीं होते और न अपने स्वभाव को बदलते हैं । वे पर्यायो के द्वारा अवस्था से अवस्थान्तर होते हुए सदैव स्थिर बने रहते है। इस दृष्टि से जैन दर्शन मे चेतन के साथ-साथ जड पदार्थों की स्वतन्त्रता भी मान्य की गई है।
जैन दर्शन के अनुसार जीव अथवा आत्मा स्वतन्त्र अस्तित्व वालाद्रव्य है। अपने अस्तित्व के लिए न तो यह किसी दूसरे द्रव्य पर आश्रित है और न इस पर आश्रित कोई अन्य द्रव्य है । इस दृष्टि से जीव को प्रभु कहा गया है जिसका अभिप्राय है जीव स्वय ही अपने उत्थान या पतन का उत्तरदायी है । वही अपना शत्रु है और वही अपना मित्र । बन्धन
और मुक्ति उसी के आश्रित है । जैन दर्शन मे जीवो का वर्गीकरण दो दृष्टिकोण से किया गया है-सासारिक और आध्यात्मिक । सासारिक दृष्टिकोण से जीवो का वर्गीकरण इन्द्रियो की अपेक्षा से किया गया है। सबसे निम्न चेतना स्तर पर एक ईन्द्रिय जीव है जिसके केवल एक स्पर्शन्द्रिय ही होती है । वनस्पति वर्ग इसका उदाहरण है। इसमे चेतना सबसे कम विकसित होती है । इससे उच्चतर चेतना के जीवो मे क्रमश रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन्द्रियो का विकास होता है। मनुष्य इनमे सर्वश्रेष्ठ माना गया है ।