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स्वातन्त्र्य बोध
दार्शनिको, राजनीतिज्ञो और समाजशास्त्रियो मे स्वतन्त्रता का अर्थ भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणो से गृहीत हुआ है । यहाँ दो परिभाषायें देना पर्याप्त है । मोटिगरं जे. एडलर के अनुसार यदि किसी व्यक्ति मे ऐसी क्षमता अथवा शक्ति है, जिससे वह अपने किये गये कार्य को अपना स्वय का कार्य बना सके तथा जो प्राप्त करे उसे अपनी सम्पत्ति के रूप मे अपना सके तो वह व्यक्ति स्वतन्त्र कहलायेगा ।" इस परिभाषा मे स्वतन्त्रता के दो आवश्यक घटक बताये गये हैं कार्य क्षमता और अपेक्षित को उपलब्ध करने की शक्ति ।
अस्तित्ववादी विचारक ज्या पाल सार्च के शब्दो मे स्वतन्त्रता मूलत मानवीय स्वभाव है और मनुष्य की परिभाषा के रूप मे दूसरो पर आश्रित नही है। किन्तु जैसे ही मैं कार्य में गूथता हू मैं अपनी स्वतन्त्रता को कामना करने के साथ-साथ दूसरो की स्वतन्त्रता का सामना करने के लिये प्रतिश्रुत हूं। इस परिभाषा के मुख्य विन्दु है-आत्म निर्भरता और दूसरो के अस्तित्व व स्वतन्त्रता की स्वीकृति।
___कहना न होगा कि उक्त दोनो परिभाषाओ के आवश्यक तत्त्व जैन Xदर्शन को स्वतन्त्रता विषयक अवधारणा में निहित हैं । ये तत्त्व उसी अवस्था मे मान्य हो सकते हैं जब मनुष्य को ही अपने सुख-दुःख का कर्ता अथवा भाग्य का नियता स्वीकार किया जाये और ईश्वर को सृष्टि के कर्ता, भर्ता और हर्ता के रूप मे स्वीकृति न दी जाये । जैन दर्शन मे १ द आइडिया ऑफ फ्रीडम, पृ० ५८६ २ Existentialism, पृ० ५४