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कि आत्मा अपने कृत कर्मों को भोगने के लिए वाध्य है पर वह उतनी वाध्य नहीं कि उसमे परिवर्तन न ला सके । महावीर की दृष्टि मे आत्मा को कर्म च मे जितनी स्वतंत्रता है, उतनी ही स्वतंत्रता उमे कर्मफल के भीगने की भी है। आत्मा अपने पुरुषार्थ के बल पर कर्मफल मे परिवर्तन ला सकती है । इस सम्बन्ध मे भगवान् महावीर के कर्म-परिवर्तन के निम्नलिखित चार सिद्धान्त विशेष महत्त्वपूर्ण हैं
(?) उदीरणा : नियत अवधि से पहले कर्म का उदय मे आना ।
(२) उद्वर्तन कर्म की अवधि और फल देने की शक्ति मे अभिवृद्धि होना ।
(3) अपवर्तन. कर्म की श्रववि और फल देने की शक्ति में कमी होना । (४) संक्रमरण - एक कर्म प्रकृति का दूसरी कर्म प्रकृति मे सक्रमण होना ।
उक्त मिद्धान्त के प्रावार पर भगवान् महावीर ने प्रतिपादित किया कि मनुष्य अपने पुरुषार्थ के वल से ववे हुए कर्मो की अवधि को घटा-बढा सकता है और कर्मफल की शक्ति को मन्द ग्रथवा तीव्र कर सकता है । इस प्रकार नियत अवधि से पहले कर्म भोगे जा सकते हैं और तीव्र फल वाला कर्म मन्द फल वाले कर्म के रूप मे तथा मन्द फल वाला कर्म तीव्र फल वाले कर्म के रूप मे वदला जा सकता है। यही नही, पुण्य कर्म के परमाणु को पाप के रूप मे और पाप कर्म के परमाणु को पुण्य के रूप मे संक्रान्त करने की क्षमता भी मनुष्य के स्वयं के पुरुषार्थ मे है । निष्कर्ष यह है कि महावीर मनुष्य को इस वात की स्वतंत्रता देते हैं कि यदि वह जागरूक है, ग्रपने पुरुषार्थ के प्रति सजग है और विवेक पूर्वक ग्रप्रमत्त भाव से अपने कार्य सम्पादित करता है, तो वह कर्म की अधीनता से मुक्त हो सकता है, परमात्म दशा अर्थात् पूर्ण स्वतंत्रता को प्राप्त कर सकता है ।
महावीर ने अपने इस ग्रात्म स्वातंत्र्य को मात्र मनुष्य तक सीमित नही रक्खा । उन्होंने प्राणी मात्र को यह स्वतंत्रता प्रदान की । अपने हिंसा सिद्धान्त के निरूपण मे उन्होंने स्पष्ट कहा कि प्रमत्त योग द्वारा किमी के प्रारणो को क्षति पहुचाना या उस पर प्रतिबंध लगाना हिंसा है । इनमे से यदि किसी एक भी प्रारण की स्वतंत्रता मे बाधा पहुचाई
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