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के । 'आचाराग' सूत्र मे ऐसे व्यक्ति की मानसिकता का वर्णन करते हुए कहा गया है- 'अणेग चित्ते खलु मय पुरिसे से केयण अरिह इ पूरइत्तए । से अण्णवहाए अण्णपरियावाए, अण्णपरिग्गहाए जणवयवहाए जणवयपरियावाए जणवयपरिग्गहाए ।""
अर्थात् ऐसा व्यक्ति अनेक चित्त वाला होता है । वह अपनी अपरिमित इच्छाओ को पूरा करने के लिये दूसरे प्राणियो का वध करता है, उनको शारीरिक और मानसिक कष्ट पहुँचाता है, पदार्थों का सचय करता है और जनपद के वध के लिये सक्रिय बनता है । वस्तुत: इस मानसिकता वाला व्यक्ति असयमी और अनुशासनहीन कहा गया है ।
शास्त्रो मे अनुशासन को बाहरी नियमो की परिपालना तक ही सीमित नही रखा गया है । वहाँ अनुशासन को विनय और सयम के रूप मे प्रतिपादित किया गया है । 'उत्तराध्ययन' सूत्र मे विनीत उसे कहा गया है जो गुरु आज्ञा को स्वीकार करता है, गुरु के समीप रहता है और मन, वचन तथा काया पर नियत्रण रखता है । जो ऐसा नही करता वह
विनीत है, अनुशासनहीन है और साक्षात् विपत्ति है । ऐसे अनुशासनहीन की भर्त्सना करते हुए उसे सड़े कानो वाली कुतिया से उपमित किया गया है और कहा है कि जैसे सड़े कानो वाली कुतिया सब जगह से निकाली जाती है, उसी तरह दुष्ट स्वभाव वाला, गुरुजनो के विरुद्ध आचरण करने वाला, वाचाल व्यक्ति सघ अर्थात् समाज से निकाला जाता है । ऐसा समझकर अपना हित चाहने वाला व्यक्ति अपनी आत्मा को विनय (अनुशासन) मे स्थापित करे - विणए ठविज्ज अप्पाण, इच्छतो हियमप्पणो ।
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आज का व्यक्ति अनुशासन को आत्मकेन्द्रित न समझकर परकेन्द्रित समझता है । जो कानून बनाने वाला या पालन कराने वाला है, वह अपने को कानून से ऊपर समझकर उसके प्रति आचारवान नही रहता । दूसरे शब्दो मे वह अन्यो से अनुशासन का पालन करवाना चाहता है, पर स्वयं अनुशासित नही होना चाहता है, जबकि सच्चा अनुशासन अपने आपको नियन्त्रित करना ही है ।
'अनुशासन' शब्द 'नु' + 'शासन' से मिलकर बना है । 'शासन' मुख्य शब्द है जो 'शास्' धातु से बना है, जिसका अर्थ है - शासन करना ।
१ - आचाराग, तृतीय अध्ययन, द्वितीय उद्देशक, सूत्र ११८
२ – उत्तराध्ययन सूत्र १ / ६
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