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'शासन' शब्द का प्रयोग प्राज्ञा, शिक्षा, सीख और उपदेश के अर्थ मे कई जगह हुआ है । आज्ञा, सीख या उपदेश देने का अधिकारी वही माना गया है, जिसने अपने पर नियन्त्रण कर लिया है । 'शासन' के पूर्व 'अनु' उपसर्ग लगने से 'अनुशासन' शब्द वना है। 'अनु' के कई अर्थ है। एक अर्थ है, पीछे या वाद मे, अर्थात् जो स्वय शासन मे रहकर वाद मे दूसरे को उस पर चलाये । 'अनु' का दूसरा अर्थ है-साथ मे लगा हुआ या निकट, अर्थात् वह आचरण या क्रिया जो प्रात्म-नियन्त्रण से सम्बद्ध हो । 'अनु' का तीसरा अर्थ है-कई वार या बार-बार अर्थात् जो शासना या प्राज्ञा है, उसे वार-वार स्मरण कर उस पर चला जाय। 'अनु' का चौथा अर्थ है- तुल्य या समान, अर्थात् जो आचरण प्रात्मशासन के समान हो । 'अनु' का पांचवा अर्थ है-ठीक, नियमित, अनुकूल अर्थात् जो आत्मस्वभाव के अनुकूल हो।
इन विभिन्न अर्थों से अनुशासन का जो स्वरूप स्पष्ट होता है, वह दूसरे को नियन्त्रित करने की बजाय 'स्व' को नियन्त्रित करने का है। दूसरे को दवाने की वजाय अपने मानसिक चाचल्य को दवाने का है। पर यह दवाव पारोपित न होकर स्वत स्फूत होना चाहिये । दृष्टि की निर्मलता के विना यह सभव नही। दृष्टि निर्मल तव वनती है जब वह पर पदार्थों के प्रति आसक्त न होकर स्वसम्मुख होती है। जब तक यह दप्टिकोण बना रहता है कि सुख बाहरी पदार्थों, शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श पर आश्रित है अथवा कामनायो की पूर्ति मे निहित है, तब तक व्यक्ति स्व-सम्मुख नही हो सकता। इन्द्रिय-सुख की भोगवृत्ति और विपयासक्ति उसे आत्मकेन्द्र से परे हटा कर भौतिक जीवन की परिधि पर ही वेतहाशा दौडाती रहती है। मनोज्ञ के प्रति राग और अमनोज्ञ के प्रति द्वप वृत्ति उसे पाकुल और द्वन्द्वमय बनाये रखती है । फलस्वरूप वह अनुशासन-बाहरी-भीतरी-को तोडने का भरसक प्रयत्न करता रहता है। आज जीवन के विविध क्षेत्रो मे तोडफोड, रक्तपात, लूटखसोट, आगजनी, बलात्कार, तस्करी, कर-चोरी, घूसखोरी आदि रूपो मे अनुशासनहीनता के जो घिनौने कृत्य हमारे सामने उभर रहे है, उनके मूल मे इन्द्रियभोग, कापायिक भाव और मन-वचन-काया की चचलता ही है।
विभिन्न प्रकार के कानून बनाकर अनुशासनहीनता के उक्त रूपो को जड से दूर नही किया जा सकता, क्योकि उन रूपो की जड वाहरी पदार्थों मे नही व्यक्ति की चेतना (मनोविकार) मे है । ऐसी चेतना मे जिसे भगवान
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