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अनुशासन : स्वरूप और दृष्टि
सामान्यतः यह माना जाता है कि ज्ञान-विज्ञान के विकास के साथसाथ शासन और अनुशासन मे अधिक निखार, जुडाव और भराव आना चाहिये । पर वर्तमान स्थिति की ओर दृष्टिपात करने से लगता है कि आज ज्ञान-विज्ञान के नानाविध क्षेत्रो मे द्रुतगामी विकास करने पर भी जीवन और समाज मे अनुशासन की निष्ठा परिलक्षित नही होती । जीवन यात्रा को सरल, सुगम और निरापद बनाने के नये-नये साधन जुटाने पर भी यात्रा अधिकाधिक वक्र, दुर्गम और भयावह बनती जा रही है। प्राज का जीवन वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक, नैतिक और आर्थिक सभी क्षेत्रो मे विविध प्रकार की दुर्घटनामो से ग्रस्त है । क्षणप्रतिक्षण बाहरी और भीतरी घरातलो पर 'एक्सीडेण्टस्' हो रहे हैं । शक्ति का अपरिमित सचय करके भी आज का मानव सुखी और शान्त नहीं है। वह तनाव, विग्रह, परिग्रह, अविश्वास, असुरक्षा, असतोष, कुठा, सत्रास, भय, व्याकुलता जैसे मनोरोगो से घिरा हुआ है । जव शक्ति के साथ सयम का मेल नहीं होता, ज्ञान के साथ क्रिया का सम्बन्ध नही जुडता, तब ऐसी स्थिति का वनना अस्वाभाविक नही।
आज हम में से अधिकाश लोग अस्वाभाविक दशा में जी रहे है। आत्मा का मूल स्वभाव समता, सरलता, कोमलता और निर्लोभ दशा मे रमण करना है। यह दशा मन की एकाग्रता और आत्मवादी चितन का परिणाम है । आज हमारा मन एकाग्र नहीं है। वह अस्थिर और चचल है। मन की अस्थिरता और चचलता, भोगवृत्ति और आसक्ति का परिणाम है । ऐसा व्यक्ति न अपने शासन मे रहता है और न किसी अन्य
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