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व्युत्सर्ग
जैन-दर्शन
पुत्सगे शब्द का अर्थ त्याग है। उसके दो भेद हैं-एक बाह्य उपधियों का त्याग और दुसरा अभ्यंतर उपधियोंका त्याग ।
वाह्योपधित्याग-दूसरे के पदार्थको वल पूर्वक अपना बनाना उपधि है । जो पदार्थ आत्मा के साथ एकरूप होकर नहीं रहते ऐसे प्रात्मा से सर्वथा भिन्न पदार्थोंको वाह्योपघि कहते हैं । उन का सर्वथा त्याग देना वाह्योपधि व्युत्सर्ग है।
अभ्यतरोपधिव्युत्सर्ग-क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसक वेद-इन अभ्यंतर परिग्रहों का सर्वथा त्यागकर देना अभ्यंतरोपधि व्युत्सगे है । अथवा शरीर से ममत्व का त्यागकर देना अम्वंतरोपधि व्युत्सर्ग है। यह दो प्रकार से होता है-एक नियत समय तक और दूसरा समाधिमरण के समय अंत समय तक ।
यह दोनों प्रकारका व्युत्सर्ग समस्त परिग्रहों से बचने लिए, ममत्व को दूर करने के लिये, जीवित रहने की आशाका त्याग करने के लिये, दोपों को दूर करने के लिये और मोक्ष मार्ग की भावना में सदा काल तत्पर रहने के लिये किया जाता है। इस प्रकार व्युत्सर्गको स्वरूप निरूपण किया। आगे ध्यानको कहते हैं।
ध्यान अपने हृदयको अन्य समस्त चितवनों से हटाकर किसी एक पदार्थ के चितवन में लगाना ध्यान है ऐसे इस ध्यानका उत्कृष्ट