________________
जैन-दर्शन
अपने ही अशुभ कर्मों के उदयका चितवन करते हैं । वे समझते हैं. कि ये प्राणी मुझे मार कर अपने अशुभ कर्मोंका बंध करते हैं और मेरे अशुभ कर्मोंकी निर्जरा करते हैं । तथा शरीर को ही दुःख पहुँचाते हैं' या शरीरका वियोग करते हैं परंतु मेरे धर्मका नाश नहीं करते। इस प्रकार उत्तम क्षमा धारण कर वे मुनिराज वध परीषह को सहन करते हैं ।
ܪ
याचना - वे मुनिराज चाहे जितने दिन के उपवासी हों, कैसे.. ही रोगी हों, कितनी ही दूर से आये हों, उनका शरीर चाहे जितना निर्बल, कृश होगया हो, हड्डी स्नायु निकल पाई हो, नेत्र बैठ गये हों और चर्या करते हुए भी थाहारादिक न मिला हो तथापि वे मुनिराज आहार, औषधि या बर्सातका आदिकी कभी याचना नहीं करते. न संकेत से कुछ सूचित करते हैं। वे कभी भी मांगने की दीनता धारण नहीं करते। इस प्रकार दीनता का भाव धारण. न करना याचना पर पह विजय है ।
अलाभ - वे मुनिराज वायु के समान सर्वत्र विहार करते हैं । वे कभी किसी से याचना नहीं करते, न मांगने के लिये कुछ संकेत
↑
で
करते हैं । कहीं कहीं पर उनको कई दिन तक श्राहारादिक प्राप्त नहीं होता है तथापि वे मुनिराज अपने मन में किसी प्रकारका खेद नहीं करते । इस अलाभ को वे परम उपवास और तपश्चरण का कारण समझते हैं । इस प्रकार वे अलाभ परीषह का विजय प्राप्त करते हैं ।
·