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लेन-दर्शन
रोग- शरीर में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होने पर भी वे मुनिराज उनके दूर करने का कोई प्रयत्न नहीं करते। वे शरीर को ही श्रात्मा से भिन्न, पौगलिक जड समझते हैं। अनेक ऋद्धियां उत्पन्न होने के कारण वे इन रोगों को क्षणभर में दूर कर सकते हैं तथापि उन रोगों को दूर करने की वे कभी इच्छा नहीं करते । वे टन रोगों को अशुभ कर्मों का ससक कर शांत परिणामों से सहन करते हैं और इस प्रकार वे रोग परीपह को जीतते हैं ।
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तृणस्पर्श - मुनि प्रामुक भूमि देखकर बैठते हैं या शयन करते हैं । फिर वह भूमि कैसी ही कंकरीली हो या प्रामुक वास तृण की बनी हो । उस घास तृणमें कांटे छिड़ते हैं, उनसे खुजली भी हो जाती है तथापि वे मुनिराज उसमें किसी प्रकारका दुःख नहीं मानते और इस प्रकार तृरा स्पर्श परीपह का विजय प्रा करते हैं ।
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मल - गर्मी के दिनों में पसीना आता है, उस पर धूल जम जाती है तथापि वे मुनिराज स्नान के सर्वथा त्यागी होते हैं। इसके सिवाय नाखून व जाते हैं, वाल चढ जाते हैं, रोम बढ जाते हैं तथा अन्य अनेक प्रकार से शरीर मलिन हो जाता है तथापि शरीरका स्वभाव चितवन करते हुए वे मुनिराज उस ओर अपना ध्यान कभी नहीं देते। वे तो आत्मा को ही अपना सममकर उसके गुणोंका चितवन करते रहते हैं । और इस प्रकार मल परीह का विजय प्राप्त करते हैं ।