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अन-दर्शन
६१ ] इनके सिवाय और भी जितनी परीषह हों वे सब इन्हीं में अंतभूति होती हैं । आगे बहुत संक्षेपसे इनका स्वरूप बतलाते हैं।
क्षुधा-मुनिराज अनेक देशों में विहार करते हैं । इसमें मार्ग का भी परिश्रम होता है तथा उद्दिष्ट रहित आहार लेते हैं, इसलिये श्राहारका लाभ होता भी है और नहीं भी होता है । आहार लाभ न होने पर भी तथा अत्यंत तीव्र सुधा लगने पर भी वे मुनिराज न तो कभी उसका चितवन करते हैं और न आवश्यक कार्यों में से किसी कार्य को छोड़ते हैं। वे नरकों की तुधा का चितवन करते हैं और धैर्य पूर्वक क्षुधा परीषह को सहन करते हैं।
.. पिपासा-गर्मी के दिन हो, नमक आदिका विरुद्ध आहार मिला हो; इससे प्यास अधिक बढ़ गई हो तथा रोग के कारण प्यास बढगई हो तथापि वे मुनिराज धैर्य पूर्वक उस तीव्र प्यासको भी सहन करते हैं । आहार के समय प्रामुक जल मिलने पर ही ग्रहण करते हैं और वहां पर उसके लिये कुछ संकेत नहीं करते हैं । इस प्रकार प्यासका सहना दूसरी परीषह का जीतना है।
- शीत~जाड़े के दिनों में भी मुनिराज किसी नदी के किनारे वा किसी मैदान में तपश्चरण करते हैं। उस समय कडाके की ठंड पडती है। अत्यंत शीत वायु चलती है। तथापि वे मुनिराज उसकी कठिन वाधा को सहन करते हैं। उस समय भी नरक की शीत वेदनाओंका चितवन करते हैं और उसको निवारण करने का कभी प्रयत्न नहीं करते । यह शीत परीषह जय है। .