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जैन-दर्शन
हुया उत्तम कुल उत्तम जाति में उत्पन्न होना अत्यंत दुर्लभ है। किर अच्छी आयु पाना, स्वस्थय शरीर होना और फिर धर्म की प्राप्ति होना अत्यंत दुर्लभ है । यदि उत्तम मनुष्य होने पर भी धर्म की प्राप्ति न हो तो सब व्यर्थ है। धर्म की प्राप्ति होने पर भी समाधिमरण प्राप्त होने पर ही सबकी सफलता होती है । इस प्रकार चितवन करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है। मुनिराज इसका चितवन करते हुए अपने कल्याण मार्ग में प्रमाद कभी नहीं करते हैं।
चितवन चितवन ना
ही सबकी समामि होने पर भी
धर्मानुप्रेक्षा-गुणस्थान तथा मानणा स्यानों में अपने प्रात्मा के स्वभावच्चा वा धर्मा चितवन करना धर्मानुप्रेक्षा है । इसके चितवन करने से मुनिराज अपने अात्म-कल्याण के लिये ही प्रयत्न करते हैं।
परीपह-जय
जो किसी मनुष्य, तिच या देव के द्वारा दुःख दिया जाता है उसको उपसर्ग कहते हैं तथा जो अन्य किसी निमित्त से दुःख प्राजाता है उसको परीपह कहते हैं। उन परीपहों को सहन करना-जीतना परीपद जय है । ऐसी परीपद वाईस हैं और वे इस प्रकार हैं। नुवा, प्यास, शीत, उम्प, दंशमशक, नान्य, अरति, ली, पर्या, निषद्या, शव्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाम, रोग, तृणन्पर्श, मल, सलारपुरस्कार, प्रना, अन्जान और अदर्शन ।