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जेन-दर्शन
___५.६] निर्जरानुप्रेक्षा--एक देश कर्मों के क्षय होने को निर्जरा कहते हैं। वह दो प्रकार की है-एक सविपाक निर्जरा और दूसरी अविपाक निर्जरा । प्रत्येक संसारी जीव के कर्म अपना फल देकर जो प्रत्येक समय में खिरते रहते हैं वह सविपाक निर्जरा है और तपश्चरण के द्वारा जो कर्म खिरते हैं, नष्ट होते हैं। वह अंविपाक निर्जरा है। सविपाक निर्जरा से आत्मा का कोई कल्याण नहीं होता. प्रत्युत नवीन कर्मों का बंध होता रहता है। अविपाक निर्जरा आत्मकल्याण का कारण है। इस प्रकार चितवन करना निजरानुप्रेक्षा है। इसका चितवन करने से मुनिराज अपने आत्म-कल्याण में लंगे रहते हैं।
लोकानुप्रेक्षा-लोकका चितवन करना लोकानुप्रेता है । अथवा इस लोक में भरे हुए जीवोंका उनके दुःखों का वा अन्य पदार्थों का चितवन करना लोकानुप्रेक्षा है। इसके चितवन करने से वे मुनिराज संसार परिभ्रमण से भयभीत होकर तपश्चरण में हढ हो जाते हैं।
बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा-इस संसार में अनंतानंत निगोदराशि भरी हुई है। एक निगोदिया जीवके शरीर में अनंतानंत जीव भरे हुए हैं। ऐसे निगोद से यह लोक घो के घडे के समान भरा हुअर है। उनमें से निकलना समुद्र में गिरी हुई मंणि के समान दुर्लभ है। यदि कोई जीव निकल भी आवेतो असंख्यातदो इन्द्रिय, असंख्यात तेइन्द्रिय, असंख्यात चौइन्द्रिय, असंख्यात असैनी पंचेन्द्रिय और असंख्यात सैनी पंचेन्द्रियों में परिभ्रमण करता