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जैन-दर्शन . है । वह समझता है कि जिस प्रकार मारने से मुझे दुःख होता है उसी प्रकार अन्य समस्त जीवों को दुःख होता है। इसीलिये वह समस्त जीवों पर समान रूप से दया धारण करता है, अत्यन्त दयालु बन जाता है और फिर वह किसी भी जीवको हिंसा नहीं करता । झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहादिकों की तृष्णा को भी हिंसा का कारण समझ कर छोड़ देता है तथा मद्य मांस और मधु को अनंत जीवराशिमय समझ कर उनका स्पर्श तक नहीं करता। वह समझता है कि इनका स्पर्श करने मात्र से भी अनंत जीवोंका घात हो जाता है। यही समझ कर वह ऐसे पदार्थों को कभी काममें नहीं लाता और इस प्रकार वह पूर्ण रूपसे अनुकंपा या दया का पालन करता है। ऐसी यह दया आत्मज्ञान के कारण ही उत्पन्न होती है। जिस आत्मामें सम्यग्दर्शन नहीं है तथा सम्यग्दर्शन न होने से सम्यग्ज्ञान या आत्मज्ञान भी नहीं है ऐसा कोई भी इस प्रकार उत्तम दया का पालन कभी नहीं कर सकता । सम्यग्दृष्टी जीव सदा दयालु होता है ।
शास्त्रों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनसे सिद्ध होता है कि सिंह व्याघ्र आदि हिंसक जीव भी काललब्धि के निमित्त से तथा किसी मुनि आदि के सदुपदेश से सम्यग्दर्शन प्राप्तकर लेते हैं और फिर वे आत्मज्ञान होने के कारण हिंसा या मांस भक्षण
आदि पापमय कार्यों को सर्वथा छोड़ देते हैं। यहां तक कि वे पानी भी प्रासुक ही पीते हैं। इस प्रकार की दया का होना सम्यग्दर्शन का ही कार्य है। अन्य किसी का नहीं |