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जैन दर्शन :
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नहीं होने देता ! इस प्रकार उसका प्रशम गुण सम्यग्दर्शन के साथ ही प्रगट हो जाता है ।
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सम्यग्दर्शनका दूसरा गुण संवेग है । जन्म मरण रूप संसार सेवा चतुर्गति रूप संसार से भयभीत होना संवेग कहलाता है । आत्माका यथार्थ श्रद्धान और यथार्थ ज्ञान होने से सम्यग्दृष्टी आत्मा यह समझने लगता है कि यह आत्मा अपनी ही भूलसेः अथवा आत्माका यथार्थ ज्ञान न होने से अब तक चारों गतियों में परि भ्रमण करता रहा है, तीव्र कषायों के होने से पाप रूप कर्मों का बंध करता रहा है और उन पाप रूप कर्मों के उदय से चारों गतियों. सें परिभ्रमण करता हुआ महा दुःखों का अनुभव करता रहा है ।" इसलिये यदि अब अपने आत्मा को दुःखों से बचाना है तो चतुर्गतियों के कारणों से बचना चाहिये। उनसे डरना चाहिये. और उनके मिटाने का प्रयत्न करना चाहिये । उस सम्यग्दृष्टी का इस प्रकार समझना ही संवेग गुण है । इस संवेग गुण के कारण ही वह आत्मा अपने आत्माका कल्याण करने में लग जाता है और दुःखों के कारणों का त्याग कर देता है ।
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सम्यग्दर्शन का तीसरा गुण अनुकंपा है। अनुकंपा दयाको कहते हैं । सम्यग्दर्शन के प्रगट होने पर यह आत्मा आत्माका यथार्थ स्वरूप जान लेता है, तथा अपने आत्मा के समान ही वह अन्य समस्त संसारी जीवों की आत्माओं को समझता है । अपने..... लिये जो दुःख के कारण है. उनको अन्य जीवों के लिये भी समझता