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जेन-दर्शन सकता । इसके सिवाय यह भी समझ लेना चाहिये कि द्वेतका अभाव ही तो अद्वैत है । वह हूँ त के होने से ही सिद्ध हो सकता है । विना द्वैतके अद्वैत की सिद्धि कभी नहीं हो सकती । इसलिये कथंचित् द्वैत और कथंचित् अद्वैत मानना ही पडेगा । इस प्रकार माने बिना किसी एक प्रकार की सिद्धि कभी नहीं हो सकती। इसी प्रकार एक अनेक मूर्त अमते आदि समस्त धर्मों में सातों भंग लगा लेने चाहिये।
इस अनेकांत वा स्याद्वाद के मानने में कुछ दर्शनकार यह कहते हैं कि एक ही पदार्थ में अस्तित्व नास्तित्व दोनों धर्म मानने में विरोध आता है। यदि उसमें अस्तित्व धर्म है तो उसमें नास्तित्व नहीं रहना चाहिये क्योंकि अस्तित्व के साथ नास्तित्व का विरोध है । यदि उसमें नास्तित्व धर्म है तो उसके साथ अस्तित्व का विरोध है । इसलिये एक पदार्थ में एक ही धर्म रह सकता है दो नहीं । इस प्रकार एक ही पदार्थ में परस्पर विरोधी दोनों धर्मों को न मानने वाले दर्शनकारों को नीचे लिखे अनुसार विरोधका लक्षण समझ लेना चाहिये।
विरोध तीन प्रकार का होता है:-वध्यघातक रूपसे, सहानवस्था रूपसे और प्रतिबंध्य-प्रतिबंधक रूपसे । वध्य और घातक रूप विरोध सर्प और नकुल का रहता है अथवा अग्नि और जलका रहता है। परन्तु यह वध्य घातक रूप विरोध एक ही समय में दोनों के संयोग होने पर होता है। बिना संयोग के कभी विरोध नहीं हो सकता । अलग रखी हुई अग्नि को अलग रक्खा हुआ