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जैन-दर्शन
२०३] समझलेना चाहिये। स्यादेकः, कथंचित एक ही है। स्यादनेका, कथंचित् अनेक ही है। स्यादेकानेकश्च, कथंचित् एक अनेक रूप ही है । स्यादवक्तव्यः, कचित् प्रवक्तव्य ही है । स्यादेकश्चा-:: वक्तव्यः, कथंचित् एक और अवक्तव्य ही है। स्यादनेकश्चावक्तव्यश्च कथंचित् अनेक और प्रवक्तव्य ही है। स्यादेकश्चानेक श्चावक्तव्यश्व, कथंचित् एक अनेक और अवक्तव्य रूप ही है। इसी प्रकार द्वैत अद्वैत मूतत्व अमूर्तत्व चेतनत्व अचेतनत्व द्रव्यत्व अद्रव्यत्व पर्यायत्व अपर्यायत्व वस्तुत्वःश्रवस्तुत्व आदि सब धर्म समझ लेने चाहिये। जो लोग केवल अद्वतः मानते हैं उनके मतमें कर्ता कर्म आदि भिन्न भिन्न कारक नहीं हो सकते । न अनेक प्रकार की चलना बैठना सोना आदि क्रियाएं हो सकती हैं। इस संसार में शुभ अशुभ दो प्रकार के कर्म होते हैं। पुण्य पाप दो प्रकार के उन कर्मों के फल होते हैं। यह लोक और परलोक दो प्रकार के लोक होते हैं। विद्या अविद्या दो प्रकार की विद्याएं: वा ज्ञान अज्ञान दो प्रकार के ज्ञान होते हैं। और वंध मोक्ष भी दो होते हैं । केवल अद्वैत मानने से यह द्वैतपना कभी सिद्ध नहीं हो सकता। परन्तु इस द्वैतपने को समस्त संसार मानता है, समस्त दर्शनकार मानते हैं. । केवल अद्वैत मानने से सबका . लोप सानना पडेगा । जो सर्वथा असंभव है। यदिः उस अद्वैत को किसी हेतु से सिद्ध किया जायगा. तो भी हेतु और साध्य. दो मानने पडेंगे । यदि बिना किसी हेतु के अद्वत माना जायगा : तो वह केवल कहने मात्र के लिये ही है, उससे सिद्ध कुछ नहीं हो