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जैन-दर्शन
२८५] जल कभी नहीं बुझा सकता। अथवा अलग बैठे हुए सर्प को अलग रहने वाला नकुल ( नौरा) कभी नहीं मार सकता। यदि अलग रहने वाला जल अलग रहने वाली अग्निको बुझा देता है तो फिर इस संसार में कहीं भी अग्नि नहीं रहनी चाहिये। यदि अलग रहने वालन नौरा अलग रहने वाले सर्प को मार सकता है तो संसार में कहीं भी सप नहीं रहने चाहिये । परन्तु विना संयोग के वध्य घातक विरोध नहीं होता। संयोग होने पर जो बलवान होता है वह निर्बल को मार लेता है। परन्तु अस्तित्व नास्तित्व दोनों धर्मों में परस्पर विरोध मानने वाले दर्शनकार किसी भी पदार्थ में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्मों को एक क्षण भी नहीं मानते हैं। जब ऊपर लिखे दोनों धर्म किसी भी पदार्थ में एक क्षण भी नहीं ठहरते हैं फिर उनके विरोध करने की कल्पना भी व्यर्थ है, हो ही नहीं सकती। यदि किसी एक पदार्थ में दोनों की वृत्ति मानली जाती है तो दोनों ही समान बलशाली होने से तथा दोनों में से कोई एक भी निर्वल वा अधिक बलवान न होने से वध्य घातक रूप विरोध नहीं हो सकता। इसी प्रकार सहानवस्था रूप विरोध भी नहीं हो सकता। क्योंकि एक काल में साथ साथ न रहने को सहानवस्था रूप विरोध होता है। जैसे श्राम के फल में एक कालमें पीलापन और हरापन का विरोध है। हरेपन के अनंतर पीलापन आता है जब पीलापन आजाता है तो हरापन रुक जाता है, परन्तु किसी भी पदार्थ में रहने वाला अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्म पूर्वोत्तर काल में नहीं रहते । वे