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जेन-दर्शन समानायः" इस व्याकरण के सूत्र से भी अकारादि वर्णसमूह अनादि सिद्ध होता है । तथा इस णमोकार मंत्र के वाच्य परमेष्ठो, अनादि हैं तो उनका वाचक यह णमोकार मंत्र भी अनादि हो सिद्ध होता है । इसके सिवाय यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि संस्कृत नित्य-नियम की पूजा के प्रारम्भ में ही णमोकार मंत्र का पाठ पढ़ा जाता है और फिर "ॐ अनादिमूलमंत्रेभ्यो नमः" यह पढ़कर पुष्पांजलि का क्षेपण किया जाता है । तदनंतर एसो पच णमोयारो' आदि पाठ से णमोकार मंत्र का महत्त्व प्रगट किया जाता है। इससे णमोकार मंत्र अनादि सिद्ध होता है। यह णमो कार मंत्र और इसकी पूजा भक्ति श्रद्धा आदि भी मोक्षप्रद है, ऐसा सिद्ध होता है । इसीलिये यह मानना पडता है कि इसकी श्रद्धा भी . सम्यग्दर्शन स्वरूप ही है, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है। . दूसरी बात यह है कि संस्कृत का व्याकरण अपरिवर्तनशील है . और उसके अपरिवर्तनशील होने से तज्जन्य प्राकृत भाषा भी
अपरिवर्तनशील है। इस सिद्धान्त के अनुसार अनादि कालीन पंच ' परमेष्ठी का वाचक णमोकार मंत्र भी अनादि है, इसमें किसी
प्रकार का संदेह नहीं है।
. . . जव पंच परमेष्ठी का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता
है-जैसाकि ऊपर बता चुके हैं तो इस णमोकार मंत्र में अत्यंत
अनुराग रखना भी सम्यग्दर्शन का चिन्ह या लक्षण है । यही - . कारण है कि समाधिमरण के समय अन्त कालमें जबकि इन्द्रियां
शिथिल होकर कुछ काम नहीं करतीं-कंठ भी रुक जाता है उस