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जैन-दर्शन कहते हैं। इनमें से अरहंत और सिद्धोंका स्वरूप देव में आजाता है और प्राचार्य उपाध्याय साधुका स्वरूप गुरुमें आजाता है। इलिये पंच परमेष्ठी का श्रद्धान भी देव गुरु का श्रद्धान कहलाता है और इसीलिये पंच परमेष्ठी का श्रद्धान करना भी सम्यग्दर्शन कहलाता है। __इन पांचों परमेष्ठियों का वाचक णमोकार मंत्र है और वह उन परमेष्ठियों को नमस्कार करने रूप है। उसका स्वरूप इस प्रकार है।
णमो अरहताणं णमो सिद्धाणं णमो श्रायरीयाणं । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्यसाहणं ।।
इसका अर्थ है; संसार में जितने अरहंत परमेष्ठी हैं उन सवको नमस्कार हो। जितने सिद्ध परमेष्ठी हैं उन सबको नमस्कार हो । संसार में जितने आचार्य हैं उन सबको नमस्कार हो । संसार में जितने उपाध्याय परमेष्ठी हैं उन सबको नमस्कार हो और संसार में जितने निग्रंथ साधु हैं उन सबको नमस्कार हो।
यह पंच परमेष्ठी का वाचक मंत्र अनादि और अनिधन है। इसका भी कारण यह है कि यह सृष्टि अनादि है मोक्षमागे अनादि है और उसके कारणभूत समस्त तत्त्व-देव, शास्त्र गुरु
और पंच परमेष्ठी भी अनादि है । जब पंच परमेष्ठी अनादि हैं तो उनके वाचक शब्द भी अनादि हैं । क्योंकि 'सिद्धो वर्ण