________________
-
-
जैन-दर्शन शुद्धात्म तत्त्वका श्रद्धान करना ही जिन अथवा देवका यथार्थ श्रद्धान करना है। यह बात पहले कही जा चुकी है कि वे जिन वा देव राग द्वेष मोह से सर्वथा रहित वीतराग होते हैं और सर्वज्ञ होते हैं। उनका कहा हुआ उपदेश धर्म कहलाता है। उसी उपदेश को शास्त्र भी कहते हैं । इसीलिये जब सर्वज्ञ नहीं होते उस समय धर्म का स्वरूप शास्त्रानुकूल ही माना जाता है। क्योंकि शास्त्र प्रवचन परंपरा पूर्वक सर्वज्ञ के उपदेश के अनुसार अक्षुण्ण रूपसे चला अरहा है। तथा उन्हीं शास्त्रों के कथनानुसार गुरु या आचार्यों का स्वरूप माना जाता है । इस सब कथन से यह बात सिद्ध हो जाता है कि आत्मा के शुद्ध स्वरूप के श्रद्धान के साथ साथ यथार्थ देव शास्त्र गुरुका या देव धर्म गुरुका श्रद्धान हो जाता है अथवा यों कहना चाहिये कि शुद्ध आत्मा का श्रद्धान करना और देव शास्त्र गुरू या देव धर्म गुरु का श्रद्धान करना दोनों एक ही बात है। इसीलिये आचार्योंने समस्त तत्त्वों का श्रद्धान करना अथवा देव शास्त्र गुरु का या देव धर्म गुरुका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन बतलाया है। इनमें से किसी एक का श्रद्धान होने पर भी अन्य सबका यथार्थ श्रद्धान हो जाता है। इसीलिये सम्यग्दर्शन के दोनों लक्षण एक ही हैं । उनमें कोई अन्तर नहीं है।
___ यहां पर इतना और समझ लेना चाहिये कि देव कहने से पंच परमेष्ठी लिये जाते हैं । अरहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय
और साधु ये पांच परमेष्ठी कहलाते हैं । "परमे स्थाने तिष्ठतीति परमेष्ठी अर्थात् जो अपने सर्वोत्कृष्ट स्थानमें रहें उन्हें परमेष्ठी