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जैन-दर्शन नीचगांव-देनरों की निंदा करना, अपनी प्रशंसा करना, श्रेष्ठ गुणों को ढकना, अयगुणों को प्रस्ट करना, अभिमान करना श्रादि नीच गोत्र के कारण हैं।
ऊंच गोत्रमरों की निंदा न करना, यानी प्रशंमा न करना श्रेष्ठ गुणों को प्रकट करना, अयगुगों को उकना, अभिमान न करना. विनय से रहना नादि च गोत्र के कारण है।
अंतराय-दान लाभ भोग अभंग बीच धादि में चिन्न करना अंतराय का कारण है।
तीर्थकरनामकर्म-सन्यदर्शन को विशुद्ध रखना, विनय धारण करना, वन और शोलों को अतिचार रहिन पालन करना, सदाकाल नानाभ्यास में लीन रहना, संमार में भयभीत रहना. शक्ति के अनुसार त्याग करना, तप करना, मुनियों को प्रापत्तियों को दूर करना, यावृय करना, अरहंत भगवान की भारत करना, प्राचार्य भगवान को भक्ति करना, उपाध्याय को भक्ति करना, शाख की भक्ति करना, श्रावश्यकों को अवश्य करना, जिन मागे की प्रभायना करना, साधर्मी लोगों में अनुराग करना ये सोलह कारण तीर्थकर प्रकृति के कारण हैं : इनको पूर्ण रीति से पालन करने से यह जीव तीर्थकर होता है । इस प्रकार संक्षेत्र से प्रान्त्रव का स्वरूप है।
बंधतच
दो पदार्थों के मिलने को बंध कहते हैं। प्रालय के द्वारा जो