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जैन-दर्शन
१५३ ] कर्म आते हैं उन कर्मों के प्रदेश तथा आत्मा के प्रदेश जो परस्पर मिल जाते हैं उसको बंध कहते हैं। यहां पर इतना और समझ लेना चाहिये कि कम एक प्रकार के पुद्गल की चर्यणा हैं । जिस समय यह जीव राग द्वष वा अन्य किसी विकार रूप परिणत होता है उसी सयम वे कर्म-वर्गणा चारों ओर से आकर प्रात्मा के प्रदेशों के साथ संबंधित हो जाती हैं। जिस प्रकार चिकने पदार्थ पर धूल जम जाती है उसो प्रकार राग द्वष मोहरूप आत्मा में ही कर्म वर्गणरए संबंधित होतो हैं । जो आत्मा राग द्वेष मोह से सर्वथा रहित है ऐसे आत्मा पर उन कर्म-वरे-णाओं का कोई प्रभाव नहीं पडता । यही कारण है कि शुद्ध प्रात्मा में कर्मों का चंध नहीं होता। यह संसारी आत्मा प्रत्येक समय में किसी न किसी विकार से विकृत होता रहता है इसलिये यह कर्मका बंध प्रत्येक समय में होता रहता है । कोई ऐसा समय नहीं है जिस समय संसारी आत्मा के कर्माका बंध न होता हो । __यह कर्मोंका चंध चार प्रकार है । प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध । प्रकृति शब्दका अर्थ स्वभाव है, जैसे गुडका स्वाभश्व मीठा है उसी प्रकार ज्ञानावरण का स्वभाव ज्ञान को ढकलेना है। दर्शनावरण का स्वभाव दर्शन को ढक लेना है । इसी प्रकार अन्य प्रकृतियों का स्वभाव है। इस प्रकृति बंध के आठ भेद हैं । ज्ञानाचरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु नाम, गोत्र, अंतराब।
जो ज्ञानको ढक लेवे वह ज्ञानावरण. है । उसके पांच भेद हैं:मतिन्नानावरण-जो मतिनान को ढक ले श्रुतज्ञानावरण-जो श्रुत