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चंद्रगुप्त द्वारा शासन प्रबंध इतने अच्छे ढग से किया गया कि जिससे लोगो मे सुख-शान्ति, सच्चाई और धार्मिक भावो की उन्नति हुई । प्रजा इस को राम-राज तुल्य मानती रही। मनुष्यों को ही नही प्रत्युत पशुप्रो को भी ज्यादा से ज्यादा सुख और कम से कम दुःख पहुँचाने का ध्यान रखा गया था। उस समय "पशुधन का आदर किया जाता था। पशुओ को "मनुष्य का मित्र और सहायक" माना जाता था। पशु मनुष्य के जीवन को सुखी बनाते थे, अतः उन्हें दुःख पहुचाना या उनका हनन करना वजित था। विशेष प्रकार के पशुओ के वध करने का अर्थ "मत्यु दण्ड" था।
जैन धर्म से चद्रगुप्त का ससर्ग बाल्यकाल से ही रहा प्रतीत होता है। नद वश की आस्था तो जैन धर्म मे थी ही, उधर “मौर्याख्य देश" में भी भगवान् महावीर का उपदेश प्रभावकारी सिद्ध हुआ था। इस तरह चद्रगुप्त बचपन से ही जैन धर्म के स्वाधीन और सर्वसुखकारी आलोक मे बढ थे । श्रु तकेवली आचार्य भद्रबाहु उनके धर्म गुरू थे । मेगस्थनीज ने भी लिखा है।। ___ "चन्द्रगुप्त श्रमण गुरुप्रो की उपासना करता था और उनको आहार दान देता था।" जैन मुनियो की अहिसामय शिक्षा का ही परिणाम था कि चन्द्रगप्त का राज्य प्राणिहित के लिए "दयामय" था। __ मगध में निरन्तर अनावृष्टि के कारण घोर दुभिक्ष के लक्षण प्रतीत होने लगे। श्रमणपति भद्रबाहु उस समय मुनि सघ के साथ दक्षिण की ओर जाने को तैयार हुए थे। चन्द्रगुप्त के राज्य का यह नियम था कि "जिस देश मे फसल अच्छी हो, राजा उसमें अपनी प्रजा को लेकर चला जाये।"
मालूम होता है इसी नियम के अन्तर्गत ही चन्द्रगुप्त आचार्य