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दूसरी पुत्री सुन्दरी को उन्होने अक विद्या सिखाई, यही से अरब देश वालो ने गिनती सीखी जो उसे हिन्दसा (हिन्द से याद आई) कहते है और उनसे ही रोम वालो ने सीखी।
-सुन्दरी ने 'अकगणित' का अनुष्ठान किया। ऋषभदेव के अन्य पुत्रो ने अलकार, छद, व्याकरण, साहित्य, ज्योतिष, अर्थशास्त्र, राजनीति आदि विषयो को उन्नत किया।
समय बीतने पर महाराज ऋषभदेव ने अयोध्यापति की उपाधि से विभूषित हो कर सुख वैभव से भरपूर राज्य किया और आश्रित प्रजा को सुखी बनाकर 'कर्म-युग' की नीव डाली।
ऋपम महाराज को इन्द्रिय सुख-वैभव का जीवन अधिक ग्रसित नही कर सका। वह इन्द्रियगत सुख-वैभव की क्षणभगरता और असारता को पहचानते थे। एक विशेष घटना ने उनकी जीवन-चर्या बदल दी, उन्होने सुख-सम्पत्ति, पूर्ण राज्य वैभव तथा कुटुम्बी जनो को छोड़ वैराग्य का दामन पकड़ा और कठोर तपस्या करके केवल ज्ञान' केवल दर्शन की प्राप्ति की और अततः कैलाश पर्वत पर समाधिस्थ होकर पार्थिव शरीर को त्याग दिया। ऋषभ ससार के आवागमन के चक्र से सदा के लिए मुक्त होकर सिद्ध, बुद्ध, अजर, अमर, सच्चिदानन्द परमात्मस्वरूप बन गये। उन्होंने कैलाश पर्वत से मुक्ति को प्राप्त कर शाश्वत सुख के अधिकारी शिव पद को प्राप्त किया।
भ० ऋपभदेव ने माघ कृष्णा चतुर्दशी को निर्वाण पाया । वैष्णव धर्म में शिवरात्रि फाल्गुण कृष्ण चतुर्दशी को मनाई जाती है। यह एक माह का अन्तर उत्तर और दक्षिण के पंचागों के कारण है। दक्षिण में शुक्ल पक्ष प्रथम और कृष्ण पक्ष बाद में माना जाता है। जबकि उत्तर भारत में कृष्ण पक्ष प्रथम और शुक्ल पक्ष महीने के अन्त में माना जाता है।