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प्रध्याय
15 (क)
जैन कला और पुरातत्व
कला का ध्येय 'कला' है । कला के विकास में मानवीय जीवन के विकास की कहानी निहित है । सार यह निकला कि कला का ध्येय "जीवन का उत्कर्ष" है ।
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कला की परिभाषा “सत्यं शिवं, सुन्दर," की जाती है । अर्थात् जो सत्य है, कल्याणकर है और सुन्दर है वही कला है । यह समस्त 'जैन कला' में सुघटित होते है ।
किसी सभ्यता व संस्कृति में कला का विकास धीरे धीरे होता है । यह विकास जब चरमावस्था को पहुँचता है तो उनके भग्नावशेष उस महान् संस्कृति का दिग्दर्शन कराने में सहायक होते हैं। किसी संस्कृति के अतीत की गौरव गाथा उसके शेष रहे चिन्ह ही बतलाते हैं । यह स्थिति श्रमण संस्कृति या जैन संस्कृति पर ठीक लागू होती है भले ही भारतीय जन गणना में जैनी संख्या में "आटे मे नमक के बराबर " बचे हो या राजनीति, धर्मनीति और सामाजिक सगठन में पिछड़ गये हो परन्तु उनके शानदार अतीत का इन प्राचीन कला कृतियों द्वारा सिंहावलोकन करके आधुनिक युग के लोग इतना तो अवश्य मानेगे कि ये जैन लोग भी किसी समय भारत की चहुँ दिशि समृद्धि में अग्रसर रहकर सेवारत रहे थे । इन्हें तुच्छ मत समझो ।
" खण्डहर बता रहे हैं कि इमारत अज़ीम थी"
सर्व प्रथम हम जैन गुफानो से अपने इस लेख को आरम्भ करते हैं