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दर्शन, न्याय, व्याकरण, कोश, काव्य, छंद, अलकार, संगीतकथा, शिल्प, मंत्र-तंत्र, वास्तुकला, चित्रकला, वैद्यक, गणित, ज्योतिष, शकुन, निमित्त, स्वप्न, सामुद्रिक, रमल, लक्षण, अर्थ, रत्नशास्त्र, मुद्राशास्त्र, नीति शास्त्र, धातु विज्ञान, प्रारिण विज्ञान आदि विषयो पर महत्वपूर्ण ग्रथों का निर्माण किया गया है ।
सर्वज्ञ और सर्वदर्शी भगवान् महावीर ने अपने आपको और समूचे लोक को देखा। उन्होने अपने प्रवचनो में बध और बंध हेतु, मोक्ष और मोक्ष हेतु का स्वरूप बताया । भगवान् की वाणी 'आगम' कहलाई । उनके प्रधान शिष्य गौतम ( इन्द्रभूति) आदि ग्यारह गणधरो ने उसे सूत्ररूप मे गूंथा । भगवान् के प्रकीर्ण उपदेश को 'अर्थागम' और उनके आधार पर की गई सूत्र रचना को 'सूत्रागम' कहा गया ।
चार्यो के लिये 'धर्म निधि' बन गये, इसलिये उनका नाम 'गरिपिटक' हुआ । इसके बारह भाग हुये जिसे 'द्वादशागी' नाम से पुकारा गया ।
'चौदह पूर्व' के ज्ञान का परिमाण बहुत विशाल है । वे 'पूर्व श्रुत या शब्द ज्ञान के समस्त विषयो के 'अक्षय कोष' होते हैं । इनके अध्येता श्रतकेवली कहलाते हैं ।
'चौदह पूर्व' का ज्ञान -विच्छेद हो चुका है। इन का पूर्ण विच्छेद ईसा की 5वी शताब्दी तक हो चुका था । महावीर के ग्यारह गणधरों के अतिरिक्त अन्य ज्ञानवान् प्राचार्यो तथा चितको ने वीर वाणी की छाया मे जीवनोपयोगी, मोक्ष-मार्गी रचनाए कीं जिनकी प्रतिष्ठा द्वादशागी के पश्चात्वर्ती की गई ।
महावीर निर्वाण से कई शताब्दी पीछे शास्त्रज्ञान अथवा श्रुतज्ञान 'गुरुमुख' से प्राप्त करने की प्रथा सर्वोत्तम मानी जाती रही और कई कारणों से उसे लिपिबद्ध करने की उपेक्षा की जाती रही ।