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[हिन्दी बेन सहित्य का इस भाषा को हम हिन्दी क्यों न कहें ? जब कि इस 'मोहमें महातम-तोडन दिनकर'-'अंधकार सकल विनासे'-'निवसो मानसहि' जैसे हिन्दी मुहावरे के शब्द पड़े हुए हैं। इसका अंतिम पद भी देखिये"तिहुयणि गिरिपुरु झाग विक्खायउ, सग्ग-खंड णं धरयलि आयउ । तहिं णिवसंतें मुणिवरें, अजय-गरिंदहो राय-विहारहिं ॥ वेगें विरहय चूनडिय सोहहु, मुणिवर जे सुर्य धारहिं ॥३१॥"
अपना इतना परिचय ही ग्रंथकार ने दिया है। इससे उनका समय निर्दिष्ट नहीं होता; परंतु वह लिपिकाल अर्थात् सं० १५७६ से तो पहले की ही है।
हमारे संग्रह में एक गुटका वि० सं० १६२६ का लिखा हुआ है, जिसमें अनेक स्तोत्र लिखे हुए हैं। उसमें लिपि की प्रशस्ति निन्न प्रकार है
"संवत् १६२६ वर्षे श्री माधमासे शुक्लपक्षे श्री वसन्तपञ्चमी दिने श्री बृहत्खरतरगछे श्री जिनचंद्रसूरिविजयराज्ये बा० श्री लक्ष्मी विनइगणि तत् शिष्य पण्डित क्षातिरंगगणिना लिपीकृतं
पुस्तिका प्रसा।" इस गुटके में संग्रहीत कतिपय रचनाओं की भाषा पुरानी हिन्दी प्रतीत होती है, यद्यपि उनके लिखने का ढंग अपभ्रंश जैसा है। उन रचनाओं में यह भी है। उनमें न तो रचनाकाल है और न प्रायः रचयिता का नाम ही । ऐसी रचनायें निम्नलिखित हैं और इनको हम सं० १६२६ से पहले की अर्थात् १५ वीं-१६ वीं शताब्दियों की अनुमान करते हैं