SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७० [ हिन्दी जैन साहित्य का इसी शोक में वह खाट से लग गया। लोगों ने कहा, 'सेठजी, दान-पुण्य कर लो ' वह बोला, 'मैं सारे धन को साथ ले जाऊँगा ।" और लक्ष्मी देवी से साथ चलने के लिए प्रार्थना की, परन्तु लक्ष्मी ने स्पष्ट उत्तर दिया कि मुझे साथ ले चलने के जो दान-पुण्य आदि उपाय थे, वह तुमने किये नहीं । इसलिए मैं तुम्हारे साथ नहीं चल सकती । बेचारा कृपण संक्लेश परिणामों से मरा और नरक के दुख भोगने लगा । इधर लोगों ने उसके मरने पर खुशी मनाई और कुटुम्बी जनों ने उसके धनका उपभोग किया। इसी लिए कवि ने ठीक सलाह दी है कि जीवनसाफल्य के लिए धन को खरचना उत्तम है। रचना कवि ने आँखों देखी घटना पर की है, इसलिए उसमें जीवट है। I पं० दीपचन्दजी पाण्ड्या को अजमेर जिले के देराहूं नामक गाँव के जैन मंदिर वाले शास्त्रभंडार में एक गुटका वि० सं० १५७६ का लिखा हुआ मिला था, जो उनके पास है । इस गुटका में निम्नलिखित रचनायें पुरानी हिन्दी की प्रतीत होती हैं -- १. सोडूढलु श्रावक कृत आगम के छप्पय, जिनमें २४ दंडकों का वर्णन है । २ - ३. विनयचन्द मुनिकृत 'कल्याणकरासु' और 'चूनड़ी' । ४. पंचमेरु संबंधी बीस विहरमाणतीर्थकर जयमाला । पाण्ड्याजी ने नं० १ से ५ तक की रचनाओं को अपभ्रंश भाषा की लिखा है, परंतु 'अनेकान्त' वर्ष ५ अंक ६-७ पृष्ठ २५७ से २६२ में उन्होंने जो 'चूना' रचना प्रकाशित की है, उससे वह पुरानी हिन्दी जँचती है। 'पृथ्वीराज रासों' की भाषा से इसकी भाषा अधिक सुबोध है । इस लिए ही उपर्युक्त रचनाओं की गणना हमने हिन्दी में की है।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy