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संक्षिप्त इतिहास प्रारम्भिक अंश पढ़िये-कवि किस रोचक रूप में कृपण का चित्रण करता है:
"कृपणु एकु परसिद्ध नयरि निवसंतु निलक्खणु । कही करम संजोग तासु घरि, नारि विचक्षणु ॥ देखि दुहुकी जोड़, सयलु जगि रहिउ तमासै । याहि पुरिषकै याहि, दई किम दे इम भासै ॥ वह रह्यौ रीति चाहै भली, दाण पुज गुण सील सति । यह दे नखाण खरचण किवै, दुवै करहि दिणि कलह अति ॥
गुरु सौं गोठि न करै, देव देहुरौ न देखै । मांगणि भूलि न देइ, गालि सुनि रहै अलेखै ॥ सगी भतीजी भुवा बहिणि, भाणिजी न ज्यावै । रहै रूसड़ौ माड़ि, आप न्यौतौ जब आवै ॥ पाहुणों सगौ आयौ सुणै, रहइ छिपिउ मुहु राखि करि । जिव जाय तवहि पणि नीसरह हम धनु संख्यों कृपण नर ॥"
एक दिन कृपण की पत्नी ने अपने पति के साथ गिरिनार की यात्रा को चलने के लिए कहा । कृपण सेठजी सुनते ही लाल-पीले हो गये । पति-पत्नी में बहुत देर तक वादविवाद हुआ। सेठानी ने धन की सफलता दान और भोग से बतलाई, परन्तु सेठ ने उसका विरोध किया । अन्त में सेठजी तंग आकर कुछ काल के लिए घर से चले गये। जब लौटे तो युक्ति से पत्नी को उसके पीहर भेज दिया । बेचारी को जाना पड़ा । इधर यात्रियों का संघ गिरिनारजी गया । उस जमाने में बैलगाड़ियों से यात्रा की जाती थी-पणिक लोग व्यापार भी करते जाते थे। संघ यात्रा करके लौटा । कृपण ने देखा कि कई लोग मालामाल होकर आये हैं। यह देख कर उसे बड़ा दुख हुआ और पछताने लगा कि 'हाय, मैं क्यों नहीं गया ?