SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [हिन्दी जैन साहित्य का सिरिमाल-वंशवयंस, मानिनी-मानस-हंस । सोनाराय जीवमपुत्त, बहुपुत्त परिबरजुत्त ॥७०॥ श्री मलिक माफर पष्टि, हयगय सुहड बहु चहि । श्रीपुंज पुंज नरिंद, बहु कवित केलि सुछन्द ॥७॥ नवरस बिलासउ लोल, नवगाह गेय कलोल । निज बुद्धि बहुअ विनाणि, गुरु धम्मफल बहु जाणि ॥७२॥ इय पुण्याचरिय प्रबन्ध, ललिअंग नृपसंबंध । पहु पास चरियह चित्त, उद्धरिय एह चरित्त ॥७३॥" 'सारसिखामनरास' संवत् १५४८ की रचना है और 'यशोधरचरित्र' उसके बाद संवत् १५८१ में रचा गया था, जिसे फफोंदू प्रामनिवासी गौरव दास नामक दिगम्बर जैन विद्वान ने रचा था। ___कृपणचरित्र' संवत् १५८० में कवि ठकरसी द्वारा रचा गया था। इस चरित्र का कथानक बड़ा ही रोचक और शिक्षाप्रद है। प्रेमीजी ने इसके विषय में लिखा है कि "यह छोटा-सा पर बहुत ही सुन्दर और प्रसादगुण सम्पन्न काव्य बंबई दिगम्बर जैन मन्दिर के सरस्वती भण्डार में एक गुटके में लिखा हुमा मौजूद है। इसमें कवि ने एक कंजूस धनी का अपनी आँखों देखा हुभा चरित्र ३५ छप्पय छन्दों में किया है ।" कवि कहते हैं'जिसौ कृपणु इक दीठु, तिसौ गुणु तासु बखाण्यौ ।' कृपणता का दुखद परिणाम दर्शा कर कवि ने बतलाया है कि 'खरचियो त्याह जीत्यौ जनमु' और 'जिह संचयो तिह हारियो जनम' जीवनसाफल्य न्यायपूर्वक धन कमा कर उसे नियमित रूप से खर्चने में है-धनको गाद रखने में मनुष्य न स्वयं उससे लाभ उठाता है और न से दूसरे के काम माने देता है। पाठक इस कथा का
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy