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संचित इतिहास] प्रतीत होती है। इस समय सम्राट अकबर का शान्तिपूर्ण शासनचक्र चल रहा था। सम्राट अकबर स्वयं विद्यारसिक और अध्यात्म धर्म-प्रेमी थे। उन्होंने स्वयं राज्य की ओर से साहित्यनिर्माण के कार्य को प्रोत्साहन दिया था। उनका अपना विशाल पुस्तकालय था। अनेक जैन विद्वानों ने स्वयं सम्राट के लिए संस्कृतभाषा की कई पुस्तकें निर्माण की थी। हिन्दीभाषासाहित्य को भी उनके समय में प्रगति मिली थी। जैनसाहित्यजगत् में इस शताब्दि की रची हुई रचनायें अनेक मिलती हैवे हैं भी विविध विषयों की और विभिन्न रसों से आतावित प्रेमीजी ने इस शताब्दि की कृतियाँ (१) ललितांगचरित्र, (६) सारसिखामनरास, (३) यशोधरचरित्र, (४) पणचरित्र और (५) रामसीताचरित्र गिनाई हैं। 'ललितांगचरित्र' को विक्रम संवत् १५६१ में श्री शान्तिसूरि के शिष्य ईश्वर सूरिने सोनाराय जीवन के पुत्र पुंज मंत्री की प्रार्थना पर बनाया था। उस समय मण्डपदुर्ग ( मांडलगढ़ ) में बादशाह ग्यासउद्दीन के पुत्र नासिरुद्दीन शासनाधिकारी थे। मलिक माफर संभवतः उनके प्रतिनिधि थे। पुंज उनके मंत्री थे। प्रेमीजी कहते हैं कि 'इसकी रचना बड़ी सुन्दर है, यद्यपि उसमें प्राकृत और अपभ्रंश का मिश्रण बहुत है ।' उदाहरणरूप उसके थोड़े से पद्य देखिये
"महिमहति मालवदेस, धण-कणयलच्छि-निवेस । तिहं नयर मंडवदुग्ग, अहि नवउ जाण कि सग्ग ॥६७॥ तिहं अतुलबल गुणवंत, श्रीण्याससुत जयवंत । समरस्य साहसधीर, श्री पातसाह निसीर ॥६॥
तसु रजि सकल प्रधान, गुरु रूपरयण निधान । ... हिंदुआ राय वजीर, श्रीपुंज मयणह वीर ॥१९॥