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संक्षिप्त इतिहास]
"सुल घाटी काठे मंत्र-(शाकिन्यधिकारे) "कुकासु बाढहि उरामे देवकउ सुजाहासु खाडतु, (सूर्यहास खङ्ग) कुकासु बाढहि हाकउ कुरहाडा लोहा, राणउ आरणु वम्मी राणी काठवत्तिम साण कीधिणि जे गेउरिहि मंत, ते रुप्पिणिहिं तोडउ सुलूके मोडलं सूल घाटीके मोडउँ, घाटी तोडउं काठेके मोडउँ कांठे सूल घाटी ! काठे मंत्र-"उडमुड स्फुट स्वाहा"
–(अनेकान्त, वर्ष २ पृ० ६१५) २ स्व० श्री दलालजी को पाटण के भंडार से चौदहवीं शताब्दि की कतिपय गद्य रचनायें मिली थीं, जिनको उन्होंने प्राचीन गुजराती अनुमान किया था, परंतु उन रचनाओं की भाषा का साम्य प्राचीन हिन्दी से अधिक है। वास्तव में वह हिन्दी की ही रचनायें हैं। उनके रचयिताओं के विषय में दलालजी ने कुछ लिखा नहीं है। पहले ही सं० १३३० की ताड़पत्रों पर लिखी हुई 'भाराधना' नामक रचना का नमूना देखियेअ-“परमेश्वर अरहंत सरणि, सकलकर्मनिर्मुक्त सिद्ध सरणि,
संसार-परीवार-समुत्तरण-यान-पात्र-महा-सत्व साधु सरणि,
सकल-पाप-पटल-कवल-नकला-कलितु-केलि-प्रणीतु धम्मु सरणि ।" ब-सं० १३४० की लिखी हुई 'अतिचार' नामक कृतिका यह अंश देखिये___ "कालबेला पढ्यं, विनयहीणु बहुमानहीणु उपधानहीणु गुरुनिहण्व अनेराकण्हई पढ्यं ।"
स-सं० १३५८ का गद्य इस प्रकार है___ “पहिलउ त्रिकालु अतीत अनागत वर्तमान बहत्तरि तीर्थकर सर्वपापक्षयंकर हउं नमस्काउं ।"
-(प्राचीन गुर्जरकाव्यसंग्रह, पृ० ८६-८८)