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________________ [ हिन्दी जैन साहित्य का इन उल्लेखों की भाषा-सरणी खड़ी बोली की ओर झुकी हुई-सी है। जिनमें संस्कृत के शब्दों का भी बाहुल्य है। आधुनिक हिन्दी भी तो ऐसी ही है। अतः गद्य के विकासक्रम के अध्ययन के लिए भी हिन्दी जैन साहित्य एक अपना विशेष दृढ़ महत्त्व रखता है। आदिकाल के साहित्य का सिंहावलोकन करते हुए हम निस्संकोच कह सकते हैं कि उसकी अपनी विशेषतायें हैं । अपभ्रंश भाषा जैन साहित्य का स्थान तो भारतीय साहित्य में निराला है ही और उसका अध्ययन हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओं की उत्पत्ति के लिए बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। यह कहना असङ्गत न होगा कि अपभ्रंश प्राकृत भाषा आदिकाल के प्रारंभ में बोलचाल की भाषा थी और वही समयानुसार परिवर्तित होकर पुरानी हिन्दी बन गयी । पाठक यह देखेंगे कि कुछ दूर चलकर पुरानी हिन्दी जब मुसलमानों के सम्पर्क में आयी तो किस प्रकार खड़ी बोली के रूप में परिवर्तित हो गयी । इस काल का हिन्दी जैन साहित्य चरित्र कथा प्रधान रहा है, यह पहले लिखा जा चुका है । साधारणतः हिन्दी जैन साहित्य-प्रन्थ मुख्यतः चार विषयों में विभक्त किये जा सकते हैं - ( १ ) तात्त्विक अथवा सैद्धान्तिक ग्रन्थ, (२) पुराण - कथा - चरित्रादि ग्रन्थ, (३) पूजा पाठ और ( ४ ) पदभजन विनती आदि । किन्तु आदिकाल में जो जैन साहित्य रचा गया वह साधारण जनता की हित दृष्टि को रखकर पुरानी हिन्दी में रचा गया था, इसलिए ही उसमें चरित्र ग्रंथों की मुख्यता रही। कुछ सुभाषित-प्रन्थ भी रचे गये । तात्त्विक प्रन्थों की पूर्ति अपभ्रंश प्राकृत भाषा में रचे हुए ग्रन्थों से होती रही । गृहस्थों 1
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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