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________________ संक्षिप्त इतिहास ] जलावेगी। बिजली राक्षस की तरह चमकेगी । सखि, भला बता तो नेमि के विना मैं यह सब कैसे सहन करूँ ? इसके उत्तर में सखी कहती है : 'सखी भणइ सामिणि मत झूरि, दुज्जण तणा मनवंछित पूरि । गयउ नेमि तउ विनठउ काइ, अछइ अनेरा वरह सयाइ ॥” हे स्वामिनि, मन में दुर्जनों की तरह झूरो मत, बल्कि मनोचाञ्छित कार्य पूरा करो । यदि नेमि चले गये तो क्या बिगड़ गया ? और बहुत से वर हैं, जो सुंदर हैं, अनियारे हैं । राजुल कहती हैं कि यह मत कहो, क्योंकि नेमि के समान कोई भी अच्छा बर नहीं है: "बोलइ राजुल तर इह वयणु, नत्थि नेमि वर सम वर-रयणु । धरइ तेजु गहगण सविताउ, गयणि न उग्गइ दियर जाउ || " इसी प्रकार के सरस प्रश्नोत्तरों में यह रचना पूर्ण हुई है । हिन्दी जैन साहित्य में प्रेम की रीति का निर्वाह नेमि -राजुलप्रसंग के द्वारा किया गया है । संघपतिसमरा-रास एक चरित्र गाथा - काव्य है । अणिहल्लपुर पट्टन में ओसवाल जाति के धनी सेठ समराशाह रहते थे । उन्होंने सं० १३७१ में शत्रुंजय तीर्थ का उद्धार अगणित धन व्यय करके 1. किया था और संघ चलाया था । इसीलिए वह 'संघपति' कहलाये थे । उनकी इस दानवीरता का वर्णन इस रास में किया गया है । इसे श्वेताम्बरीय नागेन्द्रगच्छ के आचार्य पासडसूरि के शिष्य अम्बदेव ने रचा था । इस राजा काव्य के उद्धरण हम पहले लिख चुके हैं। एक पद्य और देखिये
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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