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{ हिन्दी जैन साहित्य का
स्व० दलालजी ने इसकी भाषा को गुजराती अनुमान किया था; परन्तु पं० नाथूरामजी प्रेमी उसे पुरानी हिन्दी मानते हैं । उन्होंने लिखा है कि- "हमारी समझ में चन्द की भाषा आजकल के हिन्दी जानने वालों के लिए जितनी दुरूह है, यह उससे अधिक दुरूह नहीं है और गुजराती के साथ इसका जितना सादृश्य है उससे कहीं अधिक हिन्दी से है ।" अतः इसे हिन्दी कहना चाहिये |
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'नेमिनाथ च उपई' चालीस पद्यों का एक छोटा-सा ग्रन्थ है । इसे हम मध्यकाल में रचे गये बारहमासों का पूर्वरूप कह सकते हैं । इसमें श्री नेमिनाथजी बाईसवें तीर्थङ्कर के प्रसंग में राजमतीजी और उनकी सखियों के प्रश्नोत्तर रूप में शृङ्गार और वैराग्य का निरूपण किया गया है । श्री राजुलजी कहती हैं:
"श्रावणि सरवण कडुए मेहु, गज्जइ विरहि रिक्षिजहु देहु ।
बिज्जु सबक्कइ रक्खसि जेव, नेमिहि विणु सहि सहियइ केव ॥" इस पद्य में कवि ने 'मेघ' के लिए 'मेहु' शब्द का प्रयोग किया है । यह 'मेहु' शब्द का प्रयोग आज तक प्रचलित है । 'मेह बरसता है' – इस पद का प्रयोग आज कौन नहीं करता ? मेह के स्थान पर बादल का प्रयोग कोई नहीं करता । इसी प्रकार 'सहि ' शब्द का प्रयोग 'सखि' के लिए करना बिल्कुल आधुनिक है। अब . पद्य के भाव को देखिये । राजुल का व्याह नेमिजी से निश्चित हुआ; परंतु वह पशुओं पर दयार्द्र होकर तोरणद्वार से लौट गये और गिरिनार पर्वत पर जाकर तप तपने लगे । राजुल के लिए उनका वियोग असह्य हुआ । इस 'चौपई' में कवि राजुल के वियोग - विरह को ही चित्रित करते हैं । राजुल कहती हैं कि श्रावण में मेघों की गंभीर गर्जना से विरहामि प्रज्वलित होकर देह को