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________________ संक्षिप्त इतिहास इसमें थोड़ा सा परिवर्तन करके देखिए, आजकल की हिन्दी हो जाती है। विरला जाने तत्त्व बुध, विरले सुनेंहि तत्त्व । विरला ध्याये तत्त्व जिय, विरला धारे तत्त्व ॥ एक उदाहरण और देखिये-- "इक उपजइ मरइकुवि दुहु सुहु भुंजइ इक्कु । णरयह जाइवि इक जिय तह णिव्वाणह इक्कु ॥ ६८ ॥" इसे हिन्दी में यों पदिये एक उपजता मरता एक, दुख सुख भी भुगते एक । नरके जावे एक जिय, तथा निर्वाण भी एक ॥ पुरानी और नयी हिन्दी में शब्दों की यह विषमता स्वाभाविक है, परंतु मुहावरे दोनों के एक समान हैं। खेद है कि अध्यात्मरस की इस सुन्दर रचनाके कर्ता श्री योगचन्द्रजी के विषय में विशेष कुछ ज्ञात नहीं होता । इतना ही पता चलता है कि वह मुनि थे और अध्यात्मरस के रसिक थे। उन्होंने 'परमात्मप्रकाश', 'निजात्माष्टक' और 'अमृताशीति' नामक ग्रन्थों को भी रचा था। __'श्री जम्बूस्वामीरासा' को महेन्द्रसूरि के शिष्य धर्मसूरि ने सं० १२६६ में रचा था। इस प्रन्थ के कथानक का परिचय पहले कराया जा चुका है । उसके कुछ और उद्धरण देखिये "जंबूदीवि सिरिभरहखित्ति तिहिं नयर पहाणउ । राजगृह नामेण नयर पहुवी वक्खाणउ ॥ राज करइ सेणिय नरिदं नरवरहँ जु सारो । तासु तणह (अति) बुद्धिवंत मति अभयकुमारो ॥"
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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