________________
५४
[हिन्दी जैन साहित्य का उस विशालमति मराल ने विनयपूर्वक उसके पैर पकड़े उपरान्त घुग्घू का मायावी रूप प्रकट हो गया।"
इस तरह की आकर्षक और सरल कथायें इसमें गुम्फित हैं। अन्य अपभ्रंश, प्राकृत भाषा की रचनाओं का उल्लेख करना हमारा उद्देश्य नहीं है । अतः इस काल की हिन्दी रचनाएँ देखिए
इस काल की रची हुई पुरानी हिन्दी की कृतियों में विशेष उल्लेखनीय कृतियाँ (१) श्रीधर्मसूरिका जम्बूस्वामीरासा, (२) श्री विनयचन्द्रसूरि की 'नेमिनाथ चउपई', और (३) श्री अम्बदेवकृत 'संघपति समरा-रास' इत्यादि हैं। बारहवीं शताब्दि का रचा हुआ मुनि योगचन्द्र का 'दोहासार' भी पुरानी हिन्दी को रचना कही जाय, तो अनुपयुक्त नहीं है। इसी को 'योगसार' कहते हैं। निस्सन्देह वह उस समय की बोलचाल की भाषा में रचा गया था और उसको समझना भी कठिन नहीं है। इसीलिए उसकी गिनती पुरानी हिन्दी की रचनाओं में की जाती है। उसके उद्धरण पहले दिये जा चुके हैं, तो भी पाठकगण, उनका दिग्दर्शन पुनः करिये• "धंधय परियो सयल जगि ण वि अप्पाहु मुणंति ।
तिह कारण ए जीव फुडु ण हुणिव्वाण लहंति ॥ ५१ ॥" अर्थात्
धंधे पढ़ा सकल जग, नहिं अप्पा मन लाइ । तिस कारण यह जीव पुन, नहिं निर्वाण लहाइ ॥ और देखिये"विरला जाणहि तत्तु बुहु विरला णिसुणहि तत् । विरला झायहि तत्तु जिय विरला धारहि सत्तु ॥६५॥"