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________________ संक्षिप्त इतिहास] है। शेष दोनों रचनायें अध्यात्म विषय की हैं, जो वेदान्त के प्रेमियों के लिए बड़ी उपयोगी हैं। यहाँ उपयुक्त स्थल नहीं है. कि उनके अन्तरङ्गरूप का परिचय कराया जा सके। 'कथाकोष' की एक कथा की थोड़ी-सी बानगी देखिये -- "मगहामंडलपय-सुहयरम्मि , पयपालु राउ पायलि पुरम्मि । तत्थेव एक्कु कोसिउ उयारि , निवसइ मायावि गोउर-दुवारि ॥१॥ स कयाइ रायहंसह समीतु , गउ विहरमाणु सुरसरिहे दीवु । एक्केण तत्थ कय-सागएण , पुच्छिउ हंसे वयसागएण ॥२॥ भो मित्त, तंसि को कहसु एत्थु , आऊमि पएसहो कहो किमत्थु । धयरह हो वयणु सुणेवि घूउ , भासइ हउँ उत्तम-कुलपसूउ ॥३॥ कय-सावाणुग्गह-विहि-पयासु , आयहो पहु पुहइमंडलासु । वसवत्ति सव्व सामंत-राय , भहुं वयणु करंति कयाणुराय ॥ ४ ॥ कीलाइ भमंतउ महिपसत्थ , तुम्हइँ निएवि आऊमि एत्थ । इय वयणहिं परिऊसिउ मरालु , विणएण पयं पिउमह विसालु ॥ ५॥ अर्थात्--"मगध देश के सुखद और रम्य पाटलिपुत्र नामक नगर में प्रतिपाल राजा थे । उसी नगर के गोपुर दरवाजे में एक उजारू और मायावी उल्लू रहता था। वह कदाचित् घूमता हुआ सुरसरि द्वीप के राजहंसों के समीप पहुँच गया। वहाँ एक बूढ़े हम ने उसका स्वागत कर उससे पूछा, 'हे मित्र ! तुम कौन हो और कहाँ से आये हो ? इस प्रदेश में किस प्रयोजन से आये हो ?' धृतराष्ट्र ( हंस) के वचन सुनकर घुग्घू बोला, 'मैं उत्तम कुलप्रसूत हूँ। मैं पुष्पपुर मंडल से यहाँ आया हूँ। सर्व सामंत और राजा मेरे वशवर्ती हैं और वे अनुराग से मेरे वचनों का पालन करते हैं। क्रीडा के लिए भ्रमण करता हुआ महीपों के साथ मैं यहाँ तुम्हारे प्रदेश में आ निकला हूँ।' घुग्घू के ये वचन सुनकर
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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