SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संक्षिप्त इतिहास] जहाँ बिना दो हुई वस्तु ग्रहण न की जाती हो और जहाँ परस्त्री की ओर आँख उठाकर भी न देखा जाता हो, बल्कि पुरुष अपनी प्रिया में ही संतुष्ट हो, वहाँ धर्म है। जहाँ पराया धन तृण के समान गिना जाता हो और गुणवानों की भक्ति की जाती हो, वहाँ भी धर्म है। "एयई धम्महो अंगई, जो पालइ अविहगई। __ सो जि धम्मु सिरितुंगइ, अण्णु किधम्म हो सिंगइं॥" इस प्रकार धर्म के अङ्गों का जो पालन किया जाता है, वही धर्म है । और क्या धर्म के सिर में बड़े सींग लगे होते हैं ? आखिर धर्म क्यों पालन किया जावे ? इसके उत्तर में ककिवर कहते हैं : "वरजुवइ वस्थ भूषण संपत्ती होइ धम्मेण ।" अर्थात् सुन्दर युवतियाँ और मूल्यमयी वखाभूषण आदि सम्पत्ति धर्म से ही प्राप्त होती है। इसलिए और इस कारण से भी कि-- "धम्मे विणु ण अस्थु साहिजइ , तं असक्कु णिद्धम्मु ण जुमइ ।" धर्म के बिना अर्थ-धन की साधना नहीं हो सकती, अतः आसक्त होकर धर्म किये विना कोई योजना नहीं करनी चाहिये। मानव को इन्द्रिय-वासना में उच्छृङ्खल जीवन नहीं बिताना चाहिये; बल्कि विवाह करके नियमित संयम से रहना चाहिये। इसीलिए कवि बताते हैं कि पुरुष की शोभा सुन्दर ब को पाकर ही है। आगे कवि कहते हैं कि "सोहइ माणुसु गुणसंपत्तिए । सोहह कमारंभ-समत्तिए । सोहइ सुभट सुपोरिसराहए । सोहइ वरु बहुयाए धवलच्छिए ॥"
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy