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संक्षिप्त इतिहास] का स्थान सर्वोपरि है। प्रसंगवश यहाँ पर अपभ्रंश साहित्य के प्रमुख रत्नों पर एक दृष्टि डाल लेना अनुचित न होगा।
महाकवि पुष्पदन्त काश्यपगोत्रीय ब्राह्मण थे। केशव उनके पिता और मुग्धा उनकी माता थीं। वे दोनों शिवभक्त थे। उपरान्त वे जैनी हो गये। पुष्पदन्त का शरीर श्याम और कृश था। उनके न घर-द्वार था और न धन-सम्पत्ति, वह अकिञ्चन थे, पर आकिश्चन्य महाव्रती वह न थे । उनका मन महान् था-हृदय विशाल और उच्च था। वह पहले किन्हीं भैरव अथवा वीरराय नामक राजा के आश्रय में रहे थे; किन्तु कैसे ही वहाँ से रुष्ट होकर मान्यखेट में आ रमे। उस समय मान्यखेट में राष्ट्रकूट-नरेश कृष्ण तृतीय शासनाधिकारी थे । भरत उनके राजमंत्री थे। पुष्पदन्त भरत के आग्रह से उनके 'शुभतुग-भवन' में रहे थे। भरत के ही अनुरोध से उन्होंने काव्य-रचना की थी। उनका सबसे बड़ा काव्य 'महापुराण' है, जिसको उन्होंने शक संवत् ९६५ में रचकर समाप्त किया था। 'महापुराण' की रचना को कविवर ने अपनी महान् सफलता समझी थी । उन्होंने स्वयं कहा कि “इस रचना में प्राकृत के लक्षण, समस्त नीति, छंद, अलंकार, रस, तत्त्वार्थनिर्णय, सब कुछ आ गया है; यहाँ तक कि जो यहाँ है वह अन्यत्र कहीं नहीं है।" 'नागकुमारचरित्र' और 'यशोधरचरित्र' भी उनकी रचनायें हैं। महाकवि पुष्पदन्त को मानो सरस्वती का वरदान था-उन्होंने काव्य के सब ही अङ्गों का प्रतिपादन अमृत आकर्षक ढंग से किया है। उनका शब्दालंकार निम्नलिखित पद्यों में देखने की चीज है"ता तम्मि पत्तम्मि तइयम्मि कालम्मि ,
मक्खत्त-सोहंत-गयणंतरालम्मि ।